मृदा का वर्गीकरण के कम्प्रिहेंसिव प्रणाली (सातवें सन्निकट)
मृदा वर्गीकरण की व्यापक प्रणाली - सातवां सन्निकट ( Comprehensive System of Soil Classification— 7th Approximation ) – मृदा वर्गीकरण की व्यापक प्रणाली अमेरिका के मृदा सर्वेक्षण विभाग द्वारा 1975 में प्रस्तुत की गयी । यह पद्धति पहली पद्धतियों की निम्न कमियों को दूर करने के उद्देश्य से विकसित की गयी -
- कुछ मृदायें एक या एक से अधिक संवर्ग स्तर पर किन्हीं भी वर्गों के अनुकूल नहीं होती हैं ।
- प्रत्येक संवर्ग स्तर पर केवल एक वर्ग में मृदा को नहीं होती हैं । अनुकूल बनाने हेतु परिभाषा निश्चित
- कुछ मृदायें संवर्ग स्तर पर अधिक उपयोगी नहीं होती है ।
- कुछ मृदा समूह तर्क संगत नहीं होते हैं ।
मृदा वर्गीकरण की व्यापक प्रणाली की निम्न दो प्रमुख विशेषतायें हैं —
- यह मृदा के क्षेत्रीय दशाओं में मापन योग्य गुणों पर आधारित है ।
- मृदा वर्गीकरण संवर्गों के लिए लैटिन भाषा में विशेष नामकरण पद्धति है जिसे मृदाओं में सरलता से समझा जा सकता है ।
इस पद्धति को भारत में स्थानीय परिस्थितियों में लागू करने के प्रयास किये जाते हैं । वर्गीकरण के अन्तर्गत मृदा के प्रमुख, भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों, मृदा नमी, ताप, गहराई, संरचना, कणाकार, कार्बनिक पदार्थ, क्ले, Fe व Al के ऑक्साइड, पी एच, विलेय लवण सान्द्रण और प्रतिशत क्षार संतृप्ति आदि पर विचार किया जाता है ।
व्यापक या 7 वाँ सन्निकट पद्धति का महत्त्व -
- यह मृदा निर्माणकारी प्रक्रमों की अपेक्षा मृदा वर्गीकरण को स्वीकार करती है ।
- यह पद्धति मृदा से सम्बन्धित विज्ञानों जैसे भूगर्भ विज्ञान तथा जलवायु सम्बन्धी विज्ञान आदि की अपेक्षा मृदा पर ही केन्द्रित होती है ।
- यह पद्धति विभिन्न वैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त वर्गीकरणों से अधिक समानता प्रदर्शित करती है ।
- यह अज्ञात उत्पत्ति वाली मृदाओं के वर्गीकरण का अनुमोदन करती है और इसके लिए मृदा गुणों की जानकारी आवश्यक होती है ।
नई पद्धति में वर्गीकरण के निम्न छः संवर्ग (categories) होते हैं -
- गण ( Order )
- उप - गण ( Sub - order )
- वृहद् समूह ( Great Group )
- उप - समूह ( Sub - group )
- कुल ( Family )
- श्रेणी ( Series )
- गण ( Order ) — मृदा के गण संवर्ग मुख्यतः मृदा आकरिकी (morphology) पर आधारित होते हैं । इनकी संख्या 12 है ।
- उप-गण ( Sub-order ) — ये गणों के उपविभाजन होते हैं । विभिन्न उपगणों में अन्तर मृदा नमी एवं ताप पर आधारित होता है । अभी तक 60 उपगणों को पहचाना गया है ।
- वृहद् समूह ( Great Group ) — ये उपगणों के उपविभाजन होते हैं । लगभग 300 वृहद् समूहों को निदान संस्तरों (diagnostic horizons) के आधार पर पहचाना गया है ।
- उप-समूह ( Sub-group ) — ये वृहद् समूहों के उपविभाजन होते हैं ।
- कुल ( Family ) — अभी तक लगभग 8000 कुल पहचाने गये हैं । यह संवर्ग उन उप-समूहों के सदस्यों को वर्गीकृत करता है जिनकी कणाकार, खनिज मात्रा, पी एच, ताप एवं गहराई आदि विशेषतायें समान होती हैं ।
- श्रेणी ( Series ) — प्रत्येक कुल में कई श्रेणियाँ होती हैं । श्रेणियों में अन्तर मृदा की विशेषताओं जैसे रंग, कणाकार, संरचना, मोटाई, गाढ़ता तथा मृदा प्रोफाइल आदि के आधार पर किया जाता है । श्रेणी का नाम नदी, कस्बा या उस क्षेत्र को जहाँ श्रेणी सर्वप्रथम पहचानी गयी हो, प्रदर्शित करता है ।
मृदा गण क्या हैं | soil order in hindi
मृदा गण क्या है मृदा गणों का वर्गीकरण | soil order in hindi |
विभिन्न मृदा गणों की समकक्ष मृदायें -
- एन्टीसॉल ( Entisol ) - जलोढ़ मृदाएं, रेगोसॉल
- वर्टोसॉल ( Vertisol ) - ग्रुमूसॉल
- इन्सेप्टीसॉल ( Inceptisol ) - एन्डोसॉल
- स्पोडोसॉल ( Spodosol ) - पॉडसॉल
- एल्फीसॉल ( Alfisol ) - अकैल्सिक भूरी मृदायें, भूरी बादामी पॉडजोल निम्नीकृत चनजेम
- अल्टीसॉल ( Ultisol ) - लाल-पीला पॉडसॉल, लाल-बादामी लैटराइट
- ऑक्सीसॉल ( Oxisol ) - लैटोसॉल
- हिस्टोसॉल ( Histosol ) - कार्बनिक मृदायें
- एरिडीसॉल ( Aridisol ) - रेगिस्तानी मृदायें
- मोलीसॉल ( Mollisol ) - चेस्टनट, चर्नोजेम
- एन्डीसॉल ( Andisol ) - एलोफेन्स, AI—ह्यूमिक मृदा
- जैलीसॉल ( Gelisol ) - टुंड्रा मृदा
मृदा गणों का वर्गीकरण | classification of soil order in hindi
एन्टीसॉल ( अभिनव मृदा ) —
इस गण में संसार की 8.3 प्रतिशत मृदायें आती हैं । ये विभिन्न नवविकसित मृदायें होती हैं जिनमें मृदा प्रोफाइल का अभाव होता है । ये मृदायें प्रायः जलवायु वाले क्षेत्रों में पायी जाती हैं । भारत में अधिक ढाल पर विद्यमान मृदायें, राजस्थान की रेगिस्तान और नवीन जलोढ़ मृदायें इस गण के अन्तर्गत आती हैं । ये मृदायें खाद तथा जल का उचित प्रबन्ध होने पर अत्यधिक उपजाऊ हो जाती हैं ।
वर्टीसॉल ( उलटी - पुल्टी मृदा ) –
इस गण की मृदा का क्षेत्र संसार के कुल क्षेत्रफल का 1.8 प्रतिशत होता है । इस गण की मृदायें भीगने पर चिपचिपी और सूखने पर कठोर हो जाती हैं । इस प्रकार की मृदायें अपनी जुताई स्वयं करती रहती हैं क्योंकि ऊपर की मृदा नीचे और नीचे की मृदा ऊपर आती रहती है । इन मृदाओं में मुख्यत: कपास, ज्वार तथा बाजरा की खेती की जाती है । इस गण वाली मृदा दक्षिण भारत की काली मिट्टी के रूप में मिलती है तथा उनमें दरारें पड़ जाती हैं । ऐसी मृदा अति सूक्ष्म कणाकार और अधिक सिकुड़ने तथा फूलने के कारण कृषि करने में कठिनाई उत्पन्न करती हैं ।
इन्सेप्टीसॉल ( तरुण मृदा ) -
इस गण की मृदायें संसार की कुल मृदाओं का 8.9% होती है । इन मृदाओं के अन्तर्गत बादामी जंगली तथा एन्डो मृदायें आती हैं । इन मृदाओं के अन्तर्गत बादामी जंगली तथा एन्डो मृदायें आती हैं । इन मृदाओं में प्रोफाइल के संस्तर अपेक्षाकृत शीघ्र बनते हैं । इन मृदाओं में क्ले, आयरन तथा ऐल्युमीनियम के संचयन संस्तरों का अभाव होता है । भारत में गंगा - सिन्धु के मैदान की कुछ मृदायें और ब्रह्मपुत्र घाटी की मृदायें इसी गण में आती हैं । इनमें लगभग सब प्रकार की फसलें उगायी जा सकती हैं ।
स्पोडोसॉल ( राख मृदा ) –
यह मृदायें संसार के कुल क्षेत्रफल का 4.3 प्रतिशत होती हैं । ये हल्के भूरे रंग की राख जैसी होती हैं । ये प्राय: इल्युवियल संस्तर में मिलती हैं । ये मोटे कणाकार वाले ऐसे अम्लीय पैत्रिक पदार्थ से विकसित होती हैं जिस पर लीचिंग का प्रभाव अत्यधिक होता है इस गण की मृदायें केवल आर्द्र जलवायु वाले क्षेत्रों में पायी जाती हैं जहाँ ठण्ड एवं वर्षा अधिक पड़ती हैं । इनके गण के अन्तर्गत पॉडसॉल आदि मृदायें आती हैं । ये मृदायें प्राकृतिक वनस्पति ( जंगल ) के लिए उपयुक्त होती हैं । ये उपजाऊ नहीं होती परन्तु उर्वरकों के प्रयोग से कृषि हेतु अत्यन्त उपयोगी हो जाती है ।
एल्फीसॉल -
ये संस्तर की मृदाओं का 13.2 प्रतिशत होती हैं । ये नम खनिज मृदायें होती हैं । इनमें मौलिक ऑक्सिक या स्पोडिक संस्तर नहीं पाये जाते हैं । इनमें भूरा - बादामी रंग का पृष्ठ संस्तर और क्ले संस्तर होता है । इनके क्ले संस्तर क्षार संतृप्त होते हैं । इन मृदाओं का निर्माण ठंडे प्रदेशों में जहाँ पतझड़ जंगल होते हैं, अधिक होता है । इस गण की मृदायें कृषि के लिए भी उपयुक्त होती हैं । भारत की लाल मृदायें तथा लेटाराइट मृदायें इनके अन्तर्गत आती हैं ।
अल्टीसॉल ( अन्तिम मृदा ) –
संसार में इनका क्षेत्रफल कुल क्षेत्र का 5.6% होता है इस गण की मृदायें प्राय: नम होती हैं । ये गर्म तथा उष्ण जलवायु के क्षेत्रों में विकसित होती हैं । इन मृदाओं में क्ले ( आर्जीलिक ) संस्तर होते हैं जिनमें क्षार संतृप्तता 35 प्रतिशत कम होती है । इस गण की मृदायें प्राय: पीले और लाल रंग की होती हैं । भारत में ये मृदायें तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा, बिहार, आसाम तथा हिमाचल प्रदेश में पायी जाती हैं ।
ऑक्सीसॉल ( ऑक्साइड मृदा ) –
संसार में इनका कुल क्षेत्रफल 8.5 प्रतिशत होता है इस गण की मृदायें सर्वाधिक अपक्षयित मृदायें होती हैं जो उष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में पायी जाती हैं । इनकी पृष्ठ मृदा में आयरन तथा ऐल्युमीनियम के हाइड्रस ऑक्साइड की प्रधानता होती है । इनमें सूक्ष्म तत्त्वों की कमी पायी जाती है । इनमें क्ले की मात्रा अधिक परन्तु अचिपचिपी होती है । इस गण के अन्तर्गत लेटराइट मृदा तथा लेटोसॉल मृदायें आती हैं । ये भारत में विशेषकर केरल में पायी जाती हैं ।
हिस्टोसॉल ( कार्बनिक मृदा ) –
इस गण में कार्बनिक तथा अर्द्ध - दलदली मृदायें आती हैं । इनमें कार्बनिक पदार्थ 20-50% तक पाया जाता है । ये मृदायें जल संतृप्त वातावरण में विकसित होती हैं । ये मृदायें अत्यन्त उपजाऊ होती हैं । इन्हें पीट तथा मक मृदा भी कहते हैं ।
एरिडीसॉल ( शुष्क मृदा ) –
संसार में इनका कुल क्षेत्रफल सर्वाधिक 18-8 प्रतिशत है । इस गण की मृदायें प्रायः शुष्क तथा अर्धशुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में पायी जाती हैं । इनमें कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3), जिप्सम तथा विलेय लवणों के एकत्रीकरण से निर्मित संस्तर पाये जाते हैं । इनके अन्तर्गत मरुस्थली, लाल मरुस्थली, लाल - बादामी, सीरोजेम तथा सोलॉनचाक मृदायें आती हैं । भारत में ये मृदायें राजस्थान, गुजरात, हरियाणा तथा पंजाब में पायी जाती हैं । सिंचाई की सुविधा न होने के कारण ये मृदायें कृषि योग्य नहीं होती हैं । सिंचाई सुविधा होने पर इनमें कृषि की जा सकती है अन्यथा ये प्रायः भेड़ - बकरियाँ चराने के काम आती हैं ।
मोलीसॉल ( मृदु मृदा ) –
संसार में इस गण की मृदायें 8.6 प्रतिशत होती हैं । ये सर्वोत्तम होती हैं अधिकांश मोलीसॉल प्रेअरी वनस्पति वाले भाग में उत्पन्न होती हैं जहाँ घास के बड़े - बड़े मैदान पाये जाते हैं । इनका ऊपरी भाग अत्यन्त कोमल, मोटा तथा गहरे रंग का होता है । जिसमें द्विसंयोजी धनायनों की प्रधानता होती है । इनके ऊपरी संस्तरों की संरचना दानेदार या क्रम्बी होती है जो सूखने पर कठोर नहीं होती है । इनके अन्तर्गत भूरी जंगली, ह्यूमिक क्ले, चनजेम तथा चेस्टनट आदि मृदायें आती हैं । जो कृषि के लिए अत्यन्त उपयुक्त होती हैं । भारत में इस गण की मृदायें उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर - पूर्व हिमालय के जंगलों में पायी जाती हैं ।
एन्डीसॉल -
इस गण की मृदायें ज्वालामुखी के मुहानों पर बनती हैं । इनके पृष्ठ संस्तर में सिलिकेट खनिज ( एलोपोन, इमोगोलाइट तथा ऐल्युमीनियम ह्यूमस जटिल ) का आधिक्य होता है । इन मृदाओं में प्रोफाइल कम विकसित होता है । ऐसी मृदायें अधिक उत्पादक होती हैं ।
जैलीसॉल –
ये नई मृदायें हैं जिनमें प्रोफाइल का विकास बहुत कम हुआ है । इन मृदाओं में परमाफ्रोस्ट विद्यमान होता है जो बर्फ सीमेन्टिड मृदा पदार्थ की कठोर परत होती है । इसमें परमाफ्रोस्ट परत मृदा पृष्ठ 100 सेमी में होती है । इस गुण की मृदा में टुन्ड्रा वनस्पति, घासें तथा छोटी झाड़ियाँ उत्पन्न होती हैं । इनका बहुत सा क्षेत्र कृषि के लिए प्रयुक्त होता है । इनके क्षेत्र में मनुष्यों की संख्या अत्यधिक कम होती है ।