मृदा विज्ञान (soil science in hindi) - मृदा किसे कहते है अर्थ, परिभाषा एवं मृदा के प्रकार लिखिए

मृदा विज्ञान (soil science in hindi) -

विज्ञान की वह शाखा जिसमें मृदा के निर्माण, मृदा का वर्गीकरण, मृदा के भौतिक रासायनिक एवं जैविक गुणों और उनका पादपों से संबंध के बारे में अध्ययन करना मृदा विज्ञान (soil science in hindi) कहलाता है।

मृदा विज्ञान की दो प्रमुख शाखाएं है -

  • पेडोलॉजी
  • एडाफोलॉजी


मृदा शब्द का क्या है? | soil meaning in hindi

मृदा शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के शब्द सोलम (Solum) से हुई है जिसका तात्पर्य 'Floor' अर्थात् फर्श है । इस प्रकार मृदा पृथ्वी की ऊपरी परत मानी जाती है ।

मृदा का अर्थ (soil meaning in hindi) - “मृदा वह पदार्थ है जो हमारी फसलों को पोषित करता है और अवलम्ब अथवा सहारा देता है ।”

"Soil is that material which nourishes and supports our crops."


मृदा की परिभाषा | definition of soil in hindi

मृदा की शाखा पेडोलोजी के अनुसार, " मृदा एक प्राकृतिक पिंड है जो प्राकृतिक पदार्थों पर प्राकृतिक बलों के प्रभाव से विकसित हुई है।"

इसके अलावा मृदा की परिभाषा (definition of soil in hindi) निम्न प्रकार दी जाती सकती है -

"प्राकृतिक क्रियाओं द्वारा निर्मित चट्टानों के चूर्ण की जो पतली तह पृथ्वी के ऊपरी भाग को ढकती है और जो उचित जल एवं वायु की मात्रा के साथ पौधों की सम्भाले व कुछ सीमा तक उनके भोजन का अवलम्ब है, मृदा (soil in hindi) कहलाती है ।"


मृदा किसे कहते है? | soil in hindi | mrdda kise kehte hain

मृदा पृथ्वी के धरातल पर कार्बनिक और खनिज पदार्थों से निर्मित एक प्राकृतिक पदार्थ है जिसमें पौधे उगते हैं ।

“मृदा वह प्राकृतिक पिण्ड है जो विच्छेदित एवं अपक्षयित खनिज पदार्थों तथा कार्बनिक पदार्थों के सड़ने से बने विभिन्न पदार्थों के परिवर्तनशील मिश्रण से प्रोफाइल के रूप में संश्लेषित होती है । यह पृथ्वी को एक पतले आवरण के रूप में ढकती है तथा जल एवं वायु की उपयुक्त मात्रा के मिलने पर पौधों को यांत्रिक आधार तथा आंशिक जीविका प्रदान करती है ।"

इस प्रकार हम देखते हैं कि मृदा कार्बनिक एवं खनिज पदार्थों का एक प्राकृतिक पिण्ड है जिससे पौधों के लिये आवश्यक पोषक तत्व, जल तथा वायु प्राप्त होते हैं ।

यह भी पढ़े :-

मृदा क्या है, soil in hindi, soil meaning in hindi, मृदा विज्ञान क्या है, soil science in hindi, मृदा कितने प्रकार की होती हैं, मृदा की सरंचना, study
मृदा विज्ञान (soil science in hindi) - मृदा किसे कहते है अर्थ, परिभाषा एवं मृदा के प्रकार

मृदा के अवयव कोन कोन से होते हैं? | soil components in hindi

मृदा के चार मुख्य अवयव होते है -

  • खनिज पदार्थ ( Minerals )
  • कार्बनिक पदार्थ ( Organic Matter )
  • जल ( Water )
  • वायु ( Air )

मृदा आयतन का लगभग 50 प्रतिशत भाग ठोस होता है जिसमें खनिज पदार्थ (45%) एवं कार्बनिक पदार्थ (5%) होते हैं ।

इसके अतिरिक्त मृदा का शेष आयतन रंध्राकाश (50%) होता हैं जिसमे जल (25%) एवं वायु (25%) होते हैं ।


यह भी पढ़े :-

1. खनिज पदार्थ ( Minerals ) -

मृदा में खनिज पदार्थ चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त होता है । मृदा की ठोस अवस्था में खनिज पदार्थ की मात्रा 90% से अधिक होती है । मृदा में पत्थर, कंकड़, मोटी बालू, सिल्ट तथा क्ले का अंश रहता है । मृदा के बालू तथा सिल्ट अंश में अधिक मात्रा में पाये जाने वाले खनिज क्वार्ट्ज (सिलिका) और फेल्सपार हैं । मृदा के महीन अंश में द्वितीयक खनिजों की प्रधानता होती है । मृदा के खनिज पदार्थों में लगभग 90% सिलिका, ऐल्युमिनियम, आयरन होती है । शेष 10% भाग में कैल्सियम, मैग्नीशियम, पोटैशियम, सोडियम, टिटेनियम अधिक मात्रा में किन्तु नाइट्रोजन, सल्फर, फॉस्फोरस, बोरॉन, मैंगनीज, जिंक, कॉपर कुछ कम मात्रा में तथा अनेक दूसरे तत्व बहुत कम मात्रा में मिलते हैं ।


2. कार्बनिक पदार्थ ( Organic Matter ) -

मृदा में कार्बनिक पदार्थ 1 से 6 प्रतिशत तक पाया जाता है । यह मुख्यतः पादप एवं जन्तु अवशेषों द्वारा मृदा को प्राप्त होता है । इसके सड़ने के बाद ह्यूमस का निर्माण होता है । ह्यूमस का रंग काला या बादामी होता है । इसमें कोलाइडी गुण होने के कारण पोषक तत्वों एवं जल को धारण करने की क्षमता अधिक होती हैं ।


3. मृदा जल ( Soil Water ) -

मृदा जल वर्षा, बाढ़ से एवं सिंचाई जल से प्राप्त होता है । इसकी मात्रा, संचलन और मृदा में जलधारण मुख्यतः मृदा गठन, मृदा संरचना, कोलाइडी पदार्थों की मात्रा एवं प्रकृति तथा रन्ध्राकाश के आयतन जैसे गुणों से प्रभावित होती है । मृदा जल लवणों को विलेय करके मृदा विलयन (soil solution) बनाता है जिसके द्वारा पौधे पोषक तत्व प्राप्त करते हैं । जल मृदा रन्ध्राकाशों में परिवर्तनशील बल की मात्रा से धारित होता है । इसमें ससंजक तथा आसंजक बल कार्य करते होते हैं ।


4. मृदा वायु ( Soil Air ) -

मृदा में वायु रन्ध्राकाशों में उपस्थित रहती है । मृदा वायु में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होती है तथा ऑक्सीजन की मात्रा वायुमण्डल की अपेक्षा कम होती है । वायु जल वाष्प से संतृप्त रहती है । मृदा में जल व वायु की मात्रा में विलोम सम्बन्ध है । पौधों की जड़ों व जीवाणुओं के श्वसन के लिये ऑक्सीजन की पर्याप्त मात्रा में आपूर्ति होनी चाहिये अन्यथा पौधों की वृद्धि व विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है ।


मृदा संघटन क्या होता है? | soil composition in hindi

मृदा ठोस, द्रव और गैसीय प्रावस्थाओं का एक संकीर्ण मिश्रण है । ठोस भाग, आयतन की दृष्टि से मृदा के कुल आयतन का 50 % के लगभग होता है । इसमें मुख्य रूप से खनिज पदार्थ और कुछ कार्बनिक पदार्थ होते हैं । मृदा का शेष आयतन जल और वायु का बना होता है । मृदा के रिक्त स्थान में उपस्थित जल और वायु का आयतन एक दूसरे के उत्क्रमणीय पूरक हैं अर्थात् यदि जल का आयतन अधिक होगा तो वायु का आयतन कम होगा । मिट्टी का खनिजीय भाग विभिन्न आकार के कणों से युक्त होता है ।

आकार की दृष्टि से इनको कंकड़, रेत, सिल्ट और क्ले वर्गों में रखा जा सकता है । विभिन्न आकार के खनिज कणों के समूह को मृदा वर्ग कण (soil separates) कहते हैं ।

  • रुक्ष वर्ग कण (coarse soil separates) - इस श्रेणी में पत्थर , कंकड़ तथा बालू सम्मिलित हैं ।कंकड़ और पत्थर का आकार 2 मिमी० से अधिक होता है ।
  • बालू ( Sand ) - बालू का आकार 0.05 से 1.0 मिमी० तक होता है । बालू या रेत अपने कुछ विशेष गुणों जैसे कम सुघट्यता (plasticity) एवं कम ससंजन (cohesion) के कारण नमी परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती रेत में क्वार्ट्ज की प्रधानता होती है । इसकी जलधारण क्षमता बहुत कम होती है क्योंकि कणों के बीच बड़े आकार वाले रन्ध्र होने के कारण पानी नीचे चला जाता है । रेत की उपस्थिति में मृदा चूर्ण (friable) हो जाती है सिल्ट तथा क्ले वाली मृदा में रेत मिला देने से पर्याप्त मात्रा में रन्ध्राकाश (pore space) बढ़ जाता है ।
  • सिल्ट ( Silt ) - सिल्ट कणों का व्यास 0.02 से 0.002 मिमी० तक होता है । ये अनियमित आकार वाले कण हैं । इनकी जलधारण क्षमता, सुघट्यता, दृढ़ता (consistency) तथा जल शोषण क्षमता रेत और क्ले के बीच की होती है । इनमें केशीय रन्ध्र अधिक होते हैं । इसमें जल तथा वायु का संचार अधिक होता है । इसमें क्ले की अपेक्षा सूखने पर दरारें कम पड़ती हैं तथा सकुचन भी कम होता है । कोलायड की मात्रा न्यूनतम होती है ।
  • क्ले ( Clay ) – क्ले के कणों का आकार 0.002 मिमी० से कम होता है । क्ले कण आकार में माइका के समान होते हैं । जल मिलाने से सुघट्य हो जाते हैं तथा जल शोषण करके फूल जाते हैं । सूखने पर सिकुड़ जाते हैं और दरारें पड़ जाती हैं । क्ले की जल, गैसों एवं विलेय लवणों के प्रति अधिशोषण क्षमता अधिक होती है । क्ले कणों पर ऋणात्मक आवेश होने के कारण ये धनायनों को अधिशोषित (adsorbed) करते हैं । इनका प्रति इकाई पृष्ठीय क्षेत्रफल अधिकतम होता है, जिसके कारण जलधारण क्षमता अधिकतम होती है । मोटे तीर पर अनुमान है कि एक घन फुट बालू का खुला हुआ कुल पृष्टीय क्षेत्रफल 1/2 एकड़, दोमट का 10 एकड़, क्ले मिट्टी का 100 एकड़ के बराबर होता है ।


यह भी पढ़े :-

  • मृदा कणाकार/मृदा गठन क्या होता हैं 
  • मृदा विन्यास/मृदा सरंचना मृदा सरंचना के प्रकार एवं कृषि में इसका महत्व

मृदा कितने प्रकार की होती है? | types of soil in hindi


भारतीय मृदाओ के प्रकार निम्नलिखित है -

  • गंगा - सिन्ध की जलोढ़ मृदा ( Alluvium )
  • दक्षिण की रेगर या काली मृदा ( Regur or Black Cotton Soil )
  • मैसूर तथा मद्रास ( चेन्नई ) की लाल मृदा ( Red Soil )
  • ईंट के समान लाल रंग वाली लैटेराइट मृदा ( Laterite Soil )


भारतीय मृदा सर्वेक्षण समिति के अनुसार भारतीय मृदाओं को मोटे रूप से निम्न आठ भागों में विभाजित किया गया है -

  1. सिन्धु - गंगा की जलोढ़ या कछारी मृदायें
  2. कपास उत्पन्न करने वाली काली या रेगर मृदायें
  3. लाल मृदायें ( Red Soils )
  4. लैटेराइट मृदायें ( Laterite Soils )
  5. पीटी तथा दलदली मृदायें ( Peaty and Marshy Soils
  6. जंगलाती तथा पहाड़ी मृदायें ( Forest and Hill Soils )
  7. मरुस्थली या रेगिस्तानी मृदायें ( Desert Soils )
  8. लवणीय तथा क्षारीय मृदायें ( Saline and Alkaline Soils )


भारतीय मृदाओं की मुख्य किस्मों का वर्णन

1. जलोढ़ ( Alluvium ) -

बाढ़ से जमी हुई मृदा यह भारत की सबसे उत्तम और उर्वर मृदा है । इस प्रकार की मृदा के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश, पंजाब, बिहार, बंगाल और असम के कुछ भागों की मृदायें आती हैं । क्षेत्रफल की दृष्टि से ये मृदा लगभग तीन लाख वर्ग मील तक फैली हुई है । भारत की लगभग 42% जनता इसी क्षेत्र में रहती है । यह मृदा गंगा, सिन्धु, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, कावेरी तथा इनकी सहायक नदियों द्वारा एकत्रित की गई तलछट से बनती है । भौतिक दृष्टि से यह मृदा इतनी अच्छी होती है कि इसमें जुताई सरलतापूर्वक की जा सकती है । इस मिट्टी में लगभग सभी फसलें उगाई जा सकती हैं । गन्ना, गेहूँ, चना, मक्का, ज्वार, बाजरा, चावल, सरसों तथा दालों की उपज इनमें विशेष रूप से अच्छी होती हैं ।

भूगर्भशास्त्रीय विचार से (geologically) जलोढ़ मृदायें दो भागों में बाँटी जा सकती हैं —

  • खादर - इस मृदा का रंग हल्का होता है । इसकी उत्पत्ति नदियों द्वारा लाये गये जलोढ़ की रेत से होती है । इसमें कंकड़ बहुत कम मात्रा में होती है ।
  • भांगर - इस मिट्टी का रंग गहरा होता है । इसमें क्ले और विभिन्न गहराइयों पर कंकड़ की तह अधिक पायी जाती है और यह अप्रवेश्य (impervious) हो जाती है । यदि यह अधिक अप्रवेश्य हो जाये तो जल निकास रुक जाने के कारण Na व Mg आदि के हानिकारक लवण एकत्रित हो जाते हैं । जिससे मृदा क्षारीय, लवणीय या बंजर हो जाती है ।

जलोढ़ मृदा में साधारणतया कैलशियम व पोटेशियम अधिक मात्रा में होते हैं किन्तु नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा कार्बनिक पदार्थ (humus) कम मात्रा में होते हैं । गंगा - सिन्ध की जलोढ़ मृदा चूनेदार (calcareous) होने के कारण कंकड़ निर्माण करती है । इस मृदा में चूना 1%, पोटेशियम 0.95% तथा मैगनीशियम 1.3% तक होता है । ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में वर्षा अधिक होने के कारण मृदा का चूना बहकर कम हो जाता है । इस मृदा में चूना 0.08%, पोटेशियम 0.25% तथा मैगनीशियम 0.5% होता है । उत्तर प्रदेश की जलोढ़ मृदा में चूना, पोटेशियम तथा फॉस्फोरस पर्याप्त मात्रा में परन्तु नाइट्रोजन व कार्बनिक पदार्थ कम मात्रा में होते हैं ।

इसमें प्रायः सभी प्रकार की मृदा अर्थात् कहीं दोमट (loam) , कहीं भारी मटियार (heavy clay) और कहीं रेतदार मृदा (silt) मिलती हैं । इस क्षेत्र में यदि उत्तर - पश्चिम से दक्षिण - पूर्व की ओर चलें तो मृदा भारी होती चली जाती है । पश्चिमी में जिलों जैसे मेरठ, अलीगढ़, आगरा व मथुरा आदि में जलवायु शुष्क होने के कारण कहीं - कहीं क्षारीय मृदा भी मिलती है । पंजाब की जलोढ़ मृदा मुख्यतः दोमट व रेतीली दोमट है । इसमें कहीं - कहीं मटियार और विभिन्न गहराई पर कंकड़ भी मिलती है । इसमें पोटेशियम तथा फॉस्फोरस पर्याप्त मात्रा में परन्तु नाइट्रोजन तथा कार्बनिक पदार्थ कम मात्रा में होते हैं । विभिन्न प्रान्तों की जलोढ़ मृदा की भौतिक तथा रासायनिक रचनाओं में भी भिन्नता पायी जाती है ।


2. रेगर या काली मृदा ( Regur or Black Soil ) -

इस मृदा का स्थान भारतीय मृदाओं में दूसरा है । यह मुख्यतः दक्षिणी पठार की मृदा है । इस मृदा का क्षेत्र लगभग दो लाख वर्ग मील है । यह मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, मुम्बई, हैदराबाद महाराष्ट्र, काठियावाड़ तथा गुजरात आदि में पाई जाती है । यह मद्रास (चेन्नई) तथा राजस्थान के कुछ भागों में मिलती है । इसे चरनोजम (chernozem) मृदा भी कहते हैं क्योंकि रूसी शब्द ‘चरनोजम' का अर्थ काली मृदा से होता है । इस प्रकार की मृदा बहुत उपजाऊ होती है । इसकी उर्वरता के विषय में यह कहा जाता है कि थोड़ा बहुत खाद देते रहने पर इसकी उर्वरता दो हजार वर्ष तक बनी रहती है । यह मृदा शुष्क कृषि के लिए अधिक उपयुक्त है परन्तु इस पर सिंचाई तथा खाद के प्रयोग भी लाभकारी सिद्ध हुए हैं । इस मृदा में निकासी (drainage) की उचित व्यवस्था होनी चाहिये जिससे सिंचाई करने पर मृदा के धरातल पर लवण एकत्रित न हो सकें । रेगर या काली मृदा भीगने पर चिपचिपी (adhesive) हो जाती है । इसकी जलधारण क्षमता बहुत अधिक होती है । यही कारण है कि शुष्क होने पर इसके सिकुड़ने के कारण इसमें दरारें पड़ जाती हैं जिसके फलस्वरूप इसकी जुताई करने में बड़ी कठिनाई होती है ।

इस मृदा का काला रंग केवल धरण (humus) के कारण ही नहीं होता, किन्तु यह मृदा में ह्यूमस के अतिरिक्त कुछ निश्चित खनिजों की उपस्थिति से होता है ।

अतः इस मृदा में काला रंग टिटैनीफैरस, मैगनेटाइट और आयरन व ऐलुमिनियम के द्वि-सिलिकेट्स की उपस्थिति के कारण होता है । इस मृदा में कैलशियम व मैगनीशियम के कार्बोनेट्स अधिक मात्रा में होते हैं । इसमें आयरन व ऐलुमिनियम भी पर्याप्त मात्रा में होते हैं परन्तु पोटेशियम विभिन्न मात्राओं में पाया जाता है । इसमें हैं नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा कार्बनिक पदार्थ कम मात्रा में होते हैं । इसमें घुलनशील लवण और क्षारीय पदार्थ अधिक मात्रा में पाये जाते हैं । इसकी भस्म विनिमय क्षमता अत्यधिक (40 से 60 m.e. मिलीग्राम इक्वीवेलेन्ट) होती है । इसमें कटाव की अत्यधिक सम्भावना रहती है और प्रायः परत कटाव (sheet erosion) अधिक होता है । यह काली मृदा कपास की खेती के लिये सर्वोत्तम होती है ।

इसमें गेहूँ, बंगाली चना, ज्वार, बाजरा, मेथी, धनिया, लहसुन, प्याज और तम्बाकू की अच्छी कृषि की जाती है । उत्तर प्रदेश में काली कपास मृदा गंगा नदी के निचले क्षेत्र में पाई जाती है । यहाँ इसे कारेल (karail) कहते हैं । मद्रास (चेन्नई) की काली मृदा में कहीं - कहीं जिप्सम भी पाया जाता है । इसमें नाइट्रोजन कम परन्तु पोटाश और फॉस्फोरिक अम्ल पर्याप्त मात्रा में होते हैं । मध्य प्रदेश में गहरी भारी (dark heavy) और छिछली (shallow) दो प्रकार की काली मृदा पाई जाती है । इसमें मटियार 35-50 % तक होती है । मैसूर की काली मृदा में लवण अधिक मात्रा में होते हैं । महाराष्ट्र राज्य में पश्चिमी घाट के समीप की काली मृदा मोटी और पथरीली है । यहाँ की नीची भूमियाँ उर्वर और गहरे रंग की हैं परन्तु ऊँची भूमियाँ कम उर्वर और हल्के रंग वाली हैं ।


3. लाल मृदा ( Red Soil ) -

यहा भारत में पाई जाने वाली तीसरी मुख्य प्रकार की मृदा है । यह मृदा मद्रास ( चेन्नई ), पूर्वी हैदराबाद, दक्षिणी - पूर्वी मुम्बई, मैसूर, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बिहार के सन्थाल परगना, पूर्वी बुन्देलखण्ड, झाँसी, हमीरपुर और वीर भूमि ( बंगाल ) में पायी जाती है । इसका लाल रंग इसमें उपस्थित आरयन यौगिकों के कारण होता है । शुष्क भागों में ऊँचे स्थानों पर यह कम गहरी, पथरीली और हल्के रंग की होती है । लाल मृदा वनों में भी मिलती है । लाल मृदा के मटियार अंश में केओलिनाइट क्ले वर्ग के खनिज अधिक मात्रा में मिलते हैं ।


रे चौधरी ने सन् 1941 ई में लाल मृदा को रचनात्मक (morphological) दृष्टि से निम्न दो भागों में विभक्त किया है—

  • लाल दोमट ( Red Loam ) — इसकी संरचना लोष्ठमय (cloddy) होती है । इसमें कुछ संघित (concretionary) पदार्थ भी पाया जाता है ।
  • रक्त मृदा ( Red Earths ) — यह सहज ही चूर्ण होने वाली (friable) तथा खुली हुई होती है । इसमें आयरन व ऐलुमिनियम के ऑक्साइड (sesquioxides) अधिक होने के कारण संघित पदार्थ अधिक होते हैं ।

मद्रास (चेन्नई) की लाल मृदाओं की पी एच 6.6 से 8.0 और बिहार के विभिन्न भागों की लाल मृदा की पी एच 5.0 से 6-7 तक पाई जाती है । मैसूर की लाल मृदा में पोटेशियम तथा फॉस्फोरस पर्याप्त मात्रा में परन्तु नाइट्रोजन 0.1% से भी कम होती है । उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले की लाल मृदा पड़वा (parwa) और राकड़ा (rakra) दो प्रकार की होती है । पड़वा बादामी से भूरे रंग तक और रेतीली से दोमट तथा चिकनी दोमट (clay loam) तक होती है । राकड़ा में प्राय : कृषि नहीं की जा सकती है ।


4. लैटेराइट मृदा ( Laterite Soil ) -

यह मृदा दक्षिण की पहाड़ियों, पूर्वी घाट, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, बंगाल तथा असम आदि के कुछ भागों में पाई जाती है । इस मृदा में ऐलुमिनियम ऑक्साइड अत्यधिक मात्रा में होता है । इसमें जलयुक्त ऐलुमिना के अतिरिक्त मैंगनीज डाइऑक्साइड (MnO2) और टिटेनियम डाइ - ऑक्साइड (TiO) भी पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं ।

इस प्रकार की मृदा प्राय : अधिक वर्षा वाले भागों में पाई जाती है । इसका रंग ईंट के समान लाल होता है । सभी लैटेराइट मृदाओं में कैलशियम, पोटेशियम, नाइट्रोजन व मैगनीशियम कम मात्रा में होते हैं । इसमें आयरन फॉस्फेट के रूप में होता है, फलत: लैटेराइट मृदा में फॉस्फोरस की पर्याप्त मात्रा पायी जाती है । इसमें कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अधिक होती है । लैटेराइट मृदा की रचना छत्ते (comb) के समान कड़ी (indurated) होती है । इस मृदा में आयरन, ऐलुमिनियम, मैंगनीज तथा टिटेनियम के ऑक्साइड 90% तक होते हैं । इसमें रेत (SiO2) कम मात्रा में पाया जाता है ।


Please do not enter any spam link in the comment box.

Previous Post Next Post