मूँगफली की खेती कैसे करें | mungfali ki kheti | Farming Study

मूँगफली एक तिलहन, खाद्य एवं चारे वाली की प्रमुख फसल है परंतु मूँगफली की खेती (mungfali ki kheti) का तिलहनी वर्ग में एक महत्वपूर्ण स्थान है ।

भारत में उगाई जाने वाली सभी तिलहनी फसलों में मूँगफली की खेती (mungfali ki kheti) की प्रथम रैंक है ।

  • मूँगफली का वनस्पतिक नाम (Botanical name) - अरचिस हाइपोगिया (Arachis hypogaea L.)
  • कुल (Family) - लेग्यूमिनेसी (Leguminoceae)
  • गुणसूत्र संख्या (Chromosose) - 2n=40


मूँगफली की खेती कैसे करें? | mungfali ki kheti

मूँगफली की खेती (mungfali ki kheti) जो संपूर्ण विश्व के शीतोषण एवं समशीतोष्ण क्षेत्रों में की जाती है ओर विश्व में भारत का मूँगफली उत्पादन व क्षेत्रफल की दृष्टि से प्रथम स्थान है ।

परंतु इसकी उपज प्रति हेक्टेयर विश्व के अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है फिर भी मूँगफली की फसल देश की वनस्पति तेलों व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने में महत्वपूर्ण योगदान रखती है ।

मूँगफली की खेती कैसे करें, mungfali ki kheti, peanut farming in hindi, मूँगफली की प्रमुख किस्में एवं उनकी बुवाई व कटाई/खुदाई, मूँगफली में गुणवत्ता,
मूँगफली की खेती कैसे करें | mungfali ki kheti | Farming Study

ये भी पढ़ें :-


मुंगफली का उपत्ति स्थान -

मूँगफली का जन्म स्थान दक्षिणी अमेरिका को माना जाता है लेकिन कुछ विद्वानों के अनुसार ब्राजील को इसका जन्म स्थान कहा जाता है ।

भारत में मूँगफली की खेती (mungfali ki kheti) कब से की जा रही है इसके बारे में कुछ निश्चित मत नहीं है । फिर भी ऐसा अनुमान है कि चीन आदि देशों से मूँगफली भारत आई है ।


मूँगफली का भौगोलिक वितरण -

भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में मूँगफली की खेती प्रारम्भ होने का अनुमान है । भारत के तमिलनाडु, राज्य में इसकी खेती सर्वप्रथम प्रारम्भ हुई थी ।

सम्पूर्ण विश्व में मूँगफली की खेती करने वाले प्रमुख देशों में भारत, चीन, अमेरिका व ब्राजील आदि हैं ।

वर्तमान समय में भारत में मूँगफली की खेती (mungfali ki kheti) सर्वाधिक क्षेत्रफल पर की जाती है परन्तु यहाँ की औसत उपज अन्य देशों की तुलना में कम है । इसका प्रमुख कारण यहाँ पर मूँगफली की खेती वर्षा आश्रित होती है ।

भारत में मूँगफली उत्पादक राज्यों में गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, व मध्यप्रदेश आदि है ।


मूँगफली की खेती का आर्थिक महत्व -

मूँगफली के पौधे का प्रत्येक भाग किसी न किसी रूप में उपयोग में लाया जाता है । मूँगफली के दानों में सरलता से पचने व उच्च गुणों वाली 25% प्रोटीन पाई जाती है । इसके अतिरिक्त इसमें लगभग 19% कार्बोहाइड्रेट तथा 46% वसा पाई जाती है ।


मूँगफली की फसल का प्रमुख उपयोग -

  • मूँगफली के दानों का प्रोटीन फलों से 8 गुना, अण्डों से 2.5 गुना व माँस से 1.5 गुना अधिक होता है ।
  • मूँगफली के दानों में तेल की मात्रा 50% तक होती है । इसके तेल में विटामिन A, B तथा E के अतिरिक्त अनेक खनिज तत्व जैसे फास्फोरस, कैल्शियम, लोहा तथा अन्य अम्ल भी पाये जाते हैं जो इसके महत्व को बढ़ाते हैं ।
  • घरेलू स्तर पर मूँगफली के दानों का प्रयोग कच्चे रूप में, उबालकर, भूनकर तथा तलकर नमक व मसालों के साथ किया जाता है ।
  • मूँगफली के दानों से बना तेल सीधे अथवा इससे बने वानस्पतिक तेल का प्रयोग घरों में भोजन बनाने के लिये प्रयोग किया जाता इसके तेल व दानों का प्रयोग हलवाइयों द्वारा मिठाइयाँ बनाने में भी किया जाता है ।
  • मूँगफली के दानों से तेल निकालने के पश्चात् बचा भाग खली कहलाता है । खली में लगभग 45% प्रोटीन, 24% कार्बोहाइड्रेट, 9% वसा तथा रेशा 8% तक पाया जाता है । इस खली का प्रयोग बैड तथा बिस्कुट निर्माताओं द्वारा विभिन्न प्रकार से किया जाता है ।
  • मूँगफली की खाली का उपयोग दुधारू पशुओं के लिये एक उत्तम आहार के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है । इसमें 7-8% नाइट्रोजन, 1.5% फास्फोरस व 1-2% पोटाश पाया जाता है । अतः इसे एक अच्छे कार्बनिक खाद के रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है ।
  • मूँगफली की एक अच्छी वानस्पतिक वृद्धि वाली फसल से भूमि में लगभग 12-15 क्विटल/है० जीवांश पदार्थ संचित होता है । जीवांश पदार्थ की यह मात्रा इस फसल के अतिरिक्त अगली फसल को भी लाभ पहुँचाती है ।
  • मूँगफली के पौधे का भूमि के ऊपर वाला हरा भाग (haulm) पशुओं को खिलाने के काम आता है । इस हरे भाग का प्रयोग हे व साइलेज (Hay & Sileage) बनाने में भी किया जाता है । मूँगफली की एक हैक्टेयर फसल से लगभग 40 क्विटल हरा भाग प्राप्त होता है ।
  • मूँगफली के दानों से निकलने वाले तेल का प्रयोग वानस्पतिक तेल बनाने के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के उत्पाद जैसे साबुन, सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री, विभिन्न प्रकार की क्रीम, ग्लिसरीन तथा चमड़ा उद्योग में भी किया जाता है । इसकी खली के चूर्ण को स्टार्च बनाने तथा कागज उद्योग में प्रयोग किया जाता है ।

इसके अतिरिक्त चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसका उपयोग होता है । इससे मरहम (ointment) प्लास्टर (plaster) तथा आर्डिन (ordein) नामक औषधियाँ भी बनाई जाती हैं । मूँगफली के विभिन्न उत्पादों को निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित करने की प्रचुर सम्भावनायें हैं ।


मूँगफली का वानस्पतिक विवरण -

मूँगफली का वैज्ञानिक नाम "अरचिस हाइपोगिया Arachis hypogaea L." हैं जो "लेग्यूमिनेसी Leguminoceae" कुल की फसल है ।

मूँगफली के पौधे की जड़ मूसला होती हैं । जड़ों पर मूलरोम उपस्थित नहीं होते हैं । इसकी एक फली में 1 से 6 तक बीज बनते हैं ।


ये भी पढ़ें :-


मूँगफली की फलियाँ बनने की प्रक्रिया -

मूँगफली खरीफ में बोई जाने वाली एक तिलहनी फसल है । इसकी जीवन अवधि 4-5 माह तक होती है । इसका पौधा सीधा बढ़ने वाला गुच्छेदार अथवा फैलकर चलने वाला दोनों प्रकार का होता है । बुवाई के लगभग डेढ़ माह पश्चात् इस पर फूल आने प्रारम्भ हो जाते हैं । इन्ही फूलों से मूँगफली की फलियाँ (pods) तथा उनमें दाने (kernels) बनने की प्रक्रिया पैगिंग (pegging) कहलाती है ।

पैगिंग का शाब्दिक अर्थ है खूंटी बनना । मूँगफली के पुष्प में निषेचन के पश्चात् एक छोटी खूंटी के आकार का वृन्त अण्डाशय से निकलता है और भूमि में प्रवेश कर एक मूंगफली की फली में परिवर्तित हो जाता है । इसी फली में दोनों पाये जाते हैं ।

मूँगफली की खेती कैसे करें, mungfali ki kheti, peanut farming in hindi, मूँगफली की प्रमुख किस्में एवं उनकी बुवाई व कटाई/खुदाई, मूँगफली में गुणवत्ता,
मूँगफली की खेती कैसे करें | mungfali ki kheti | Farming Study

यह प्रक्रिया लगभग चार सप्ताह में पूर्ण होती है । प्रथम सप्ताह में पुष्प में निषेचन के पश्चात् इसके अण्डाशय से एक पतला लम्बा वृन्त निकलता है और तेजी से वृद्धि करता हुआ यह भूमि की ओर बढ़ता है । दूसरे सप्ताह में यह वृन्त भूमि में प्रवेश कर जाता है और इसका अग्रभाग एक फली के रूप में बदलने लगता है । तीसरे सप्ताह में फली की पूर्ण वृद्धि होती है तथा इसमें 3-4 दाने बन जाते हैं तथा चौथे व अन्तिम सप्ताह में फली व दानों का पूर्ण विकास हो जाता है तथा फली परिपक्व हो जाती है । नये पुष्प आने तथा फली बनने की यह घटना ही पैगिंग कहलाती है ।

यह प्रक्रिया पौधे पर लगभग 2 माह तक चलती है और पौधा फलियों से भर जाता है । अन्त में फसल के पूर्ण परिपक्वता के समय इसे सुविधानुसार काटकर फलियो को संरक्षित कर लिया जाता है ।

मूँगफली के लिए उपयुक्त जलवायु एवं भूमि -

मूँगफली उष्णकटिबन्धीय क्षेत्र का एक पौधा है । यह पाला और सूखा दोनों की ही सहन नहीं कर पाता है । अधिक जल की स्थिति इसके लिये हानिकारक है । उसके पौधे की प्रारम्भिक वृद्धि के लिये लगभग 15°C से 18°C तक का तापमान उपयुक्त रहता है । पौधे की वृद्धि के लिये 25°C से 30°C तापमान उपयुक्त पाया गया है । फलियाँ पकते समय तापमान 30°C से ऊपर होना चाहिये । फसल पकने के समय पर्याप्त सूर्य का प्रकाश होना आवश्यक है । भारत में इसकी चार फसलें खरीफ, रबी, ग्रीष्म व बसन्त में ली जाती हैं ।

मूँगफली की खेती के लिये बलुई दोमट भूमि की आवश्यकता होती है । इसमें प्रचुर मात्रा में कैल्शियम होना चाहिये । भूमि का pH मान 6.0 से 7.5 के बीच में होना चाहिये । भूमि में जल निकास होना भी आवश्यक है ।


मूँगफली की खेती के लिए उत्तम जाति का चुनाव -

सामान्यतः मूँगफली की उगाई जाने वाली जातियाँ दो प्रकार की होती हैं -

  1. गुच्छेदार जातियाँ ( Bunch type varieties )
  2. फैलने वाली जातियाँ ( Sprading type varieties )


1. गुच्छेदार जातियाँ - मूँगफली की इन जातियों के पौधों में सीधी बढ़ने वाली एक शाखा पाई जाती है जो कि पौधे के आधारका कार्य करती है । इसमें मुख्य तना सीधा, लम्बा व मजबूत होता है और फलियाँ मुख्य तने के चारों ओर फैली रहती हैं ।

  • गुच्छेदार किस्में - ज्योति, TMV-2, JL-24, TMV-7, TMV-9, फैजपुर-1,5, कुबेर, BG-3, BAU-13, जवान इत्यादि प्रमुख किस्में है ।

2. फैलने वाली जातियाँ - ये जातियाँ भूमि की सतह पर फैलकर चलती है । इसमें मुख्य तना छोटा, फैलने वाला तथा कमजोर होता है और फलियाँ भूमि पर फैली रहती हैं ।

  • फैलने वाली किस्में - M-13, Type-28, Type-64, RS-1, TMV-1, TMV-3, TMV-6, TMV-S, TMV-10, AK-10, AK-8-10, चन्द्रा, M-37, M-145, PG-1, C-501, M335 व सोमनाथ इत्यादि प्रमुख किस्में है ।


मूँगफली की खेती के लिए भूमि का चुनाव –

मूँगफली की खेती (mungfali ki kheti) विभिन्न प्रकार की भूमियों में की जा सकती है । इसकी खेती के लिये सबसे उपयुक्त भूमि बलुई दोमट होती है और इस भूमि में कैल्सियम की भी पर्याप्त मात्रा होनी आवश्यक है । भूमि का pH मान 6.0 से 7.5 के बीच में होना चाहिये । भूमि की विद्युत संचालकतो (electrical conductivity) 4 millimhos/cm से कम होनी चाहिये । इस भूमि में जल निकास का होना भी नितान्त आवश्यक है ।


मूँगफली के लिए खेत की तैयारी –

पहली रबी की फसल कटने के पश्चात् मिट्टी पलटने वाले हल से 15-20 सेमी० गहरी खेत की जुताई करनी चाहिये । इसके पश्चात् एक बार खेत की हल से जुताई व दो बार हैरो चलाने से खेत की मिट्टी बारीक हो जाती है और खेत बुवाई के लिये तैयार हो जाता है ।


मूँगफली में उत्तम फसल चक्र -

मूँगफली की फसल विभिन्न फसल चक्रों में गेहूँ, चना, मटर तथा अन्य फसलों के साथ सम्मिलित की जा सकती है ।


मूँगफली में मिलवाँ खेती -

मूँगफली की फसल को मक्का, ज्वार, बाजरा, कपास व सूरजुमखी आदि फसलों के साथ मिलवाँ खेती के रूप में उगाया जा सकता है । मक्का


मूँगफली में अन्तरासस्यन -

मूँगफली की फसल अरहर, बाजरा, आदि फसलों के बीच में उगाई जा सकती है ।

अन्तरासस्यन के कुछ प्रमुख उदाहरण निम्न हैं -

मूँगफली + अरहर, मूँगफली + सुरजमुखी, मूँगफली + ज्वार व मूँगफली + बाजरा


ये भी पढ़ें :-


मूँगफली की खेती में अन्तरण -

मूँगफली की असिंचित फसल के लिये पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 सेमी० पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी० रखनी चाहिये । सिंचित क्षेत्रों में पौधों की संख्या बढ़ाने के लिये अन्तरण कम कर देते हैं और इसमें पंक्ति से पंक्ति की दूरी सेमी० और पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी० रखनी चाहिये ।


मूँगफली की खेती के लिए बुवाई दर -

मूँगफली की असिंचित फसल के लिये बीज की मात्रा 110-120 किग्रा/है० रखनी चाहिये । सिंचित क्षेत्रों में मूँगफली की बुवाई के लिये बीज दर अपेक्षाकृत अधिक रखी जाती है और यह 135-140 किग्रा/है० तक हो सकती है ।


मूँगफली में बीज उपचार -

मूँगफली के बीज की बुवाई करने से पूर्व उसको विभिन्न रसायनों से उपचारित किया जा सकता है । बीज जनित विभिन्न बीमारियों पर नियन्त्रण के लिये मेनकोजेब (manocozeb) नामक रसायन की दो ग्राम मात्रा प्रति किग्रा० बीज की दर से प्रयोग करनी चाहिये ।


मूँगफली की खेती के लिए बुवाई का समय –

खरीफ में मूँगफली की बुवाई के लिये 10 जौलाई से 5 अगस्त तक का समय उपयुक्त होता है । रबी के मौसम में बुवाई 15 अक्टूबर से 7 दिसम्बर तक की जा सकती है ।


मूँगफली की बुवाई के यन्त्र -

मूँगफली की बुवाई पशुचालित सीड - ड्रिल व हल के पीछे की जा सकती है ।


मूँगफली की बुवाई की गहराई –

मूँगफली के बीज की बुवाई की गहराई 5 सेमी ० से अधिक नहीं होनी चाहिये ।


मूँगफली की खेती के लिए आवश्यक खाद -

यह एक तिलहन वर्ग की दाल वाली फसल है । इसके पौधे को पर्याप्त मात्रा में सल्फर, फास्फोरस व कैल्शियम की आवश्यकता होती है । विभिन्न पोषक तत्वों की पूर्ति के लिये भूमि में 5-10 टन/है० गोबर की खाद का प्रयोग बुवाई से एक माह पूर्व किया जाना चाहिये


मूँगफली के लिए आवश्यक उर्वरक -

मूँगफली के एक दलहनी फसल होने के कारण इसके लिये कम नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है । एक हैक्टेयर फसल के लिये 10-20 किग्रा० नाइट्रोजन, 20-40 किग्रा० फास्फोरस तथा 20-40 किग्रा० पोटाश पर्याप्त होता है ।

इस फसल को सल्फर व कैल्शियम सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है । सल्फर के लिये अमोनियम सल्फेट का प्रयोग करना अधिक उपयुक्त रहता है क्योंकि इससे नाइट्रोजन के साथ - साथ सल्फर की भी पूर्ति हो जाती है । कैल्शियम की पूर्ति हेतु 100 किग्रा० जिप्सम प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है । एक क्विटल मूँगफली उत्पादन करने के लिये 4.38 किग्रा० नाइट्रोजन, 0-40 किग्रा० फास्फोरस तथा 3 किग्रा पोटाश की आवश्यकता पड़ती है ।

जैव ऊवरकों का प्रयोग से उपज में 15-30 प्रतिशत तक अतिरिक्त वृद्धि होती है । जैविक ऊर्वरकों से मूँगफली की फसल 20 किग्रा० तक अतिरिक्त नाइट्रोजन भूमि में संचित करती है । मूँगफली का पौधा वायुमण्डल की नाट्रोजन को पौधे की जड़ों में पाये जाने वाले जीवाणुओं द्वारा 200-250 किग्रा० नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर तक संचित करता है ।


मूँगफली की खेती में जल प्रबन्ध -

खरीफ की फसल के लिये अतिरिक्त जल की आवश्यकता नहीं होती है । रबी में उगाई गई फसल के लिये 8-10 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है । मूँगफली के पौधे पर फूल आते समय तथा फलियाँ बनते समय भूमि में नमी की उचित मात्रा होनी अत्यन्त आवश्यक है । फलियाँ बनते समय 5-10 सेमी० पानी भूमि में होना चाहिये ।


मूँगफली की खेती की कटाई एवं उपज -

मूँगफली के पौधे से फलियाँ पीली पड़ने पर उनकी कटाई कर ली जानी चाहिये । ऐसी अवस्था में फलियों में लगभग 10% तक नमी होती है । खरीफ के मौसम में वर्ष आधारित फसल की उपज लगभग 800 किग्रा०/हैक्टेयर तक होती है । सिंचित अवस्था में 2.5 से 3.5 टन प्रति हैक्टेयर उपज होती है ।


मूँगफली की खेती में लगने वाले प्रमुख रोग एवं ‌उनका नियंत्रण -

मूँगफली की फसल में लगने वाली प्रमुख बीमारियों में टिक्का रोग व मोजेक की भाँति पौधों का बौनापन आदि होते हैं ।


मूँगफली का टिक्का अथवा पर्णधब्बा रोग (tikka or leaf spot disease - of groundnut) –

इस रोग से ग्रस्त मूँगफली के पौधे की नीचे की पत्तियों पर इस बीमारी के लक्षण स्पष्ट दिखाई पड़ते है । ये लक्षण फैलते हुये तनों तक पहुँच जाते हैं । पौधे की पत्तियो पर छोटे, गहरे व भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं । इस रोग के लगने से पौधे की पत्तियाँ गिरने लगती हैं । आर्द व गर्म मौसम में रोग तीव्रता से पनपता है और पौधों से प्राप्त उपज घट जाती है ।

इसके नियन्त्रण के लिये मूँगफली के 1 किग्रा० बीज को 2.5 ग्राम थायराम रसायन से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये । फसल के रोगग्रस्त पौधों के अनुपयोगी भागों को तोड़कर जला देना चाहिये । इसके अतिरिक्त टिक्का रोगरोधी जातियों जैसे टाइप-64, टी० एम० बी-6 तथा Dh-8 आदि का बुवाई हेतु चुनाव करना चाहिये ।


ये भी पढ़ें :-


मूँगफली में गुणवत्ता से आप क्या समझते है?

मूँगफली में गुणवत्ता - मूँगफली के पौधे का प्रत्येग भाग किसी न किसी रूप में उपयोग में लाया जाता है । मूँगफली की गिरी का तेल खाद्य तेल के रूप में तथा वानस्पतिक तेल के बनाने में अन्य बहुत से उद्योगों में प्रयोग में लाया जाता है जैसे साबुन, सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री, क्रीम, ग्लिसरीन, चमड़ा व चिकित्सा उद्योग आदि ।

इस प्रकार यह कहना भी अतिश्योक्ति न होगी कि 'मूँगफली एक औद्योगिक फसल है ।' इसके अतिरिक्त इसकी खली के चूर्ण को स्टार्च व कागज बनाने में तथा बिस्कुट, नमकीन निर्माताओं तथा बेकरी उद्योग में प्रयोग होता है । इससे विभिन्न गुणवत्तायुक्त उत्पादों का देश से भारी मात्रा में निर्यात कर विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जाती है ।

मूँगफली के पौधे का हरा भाग पशुओं के लिये चारे हेतु प्रयोग में लाया जाता इसका छिलका पशुओं के लिये चारे व खेत में जीवांश पदार्थ बढ़ाने के लिये प्रयोग में एक पौष्टिक आहार है तथा खेतों लाया जाता है । मूँगफली की खली भी पशुओं के लिये में प्रयोग के लिये एक उत्तम कार्बनिक खाद है ।

यद्यपि मूँगफली का पौधा पूर्णरूपेण लाभदायक है फिर भी इसका दाना (गिरी) सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग होता है । इसी से हमें सर्वाधिक आर्थिक लाभ के उत्पाद  प्राप्त होते हैं ।

अतः यही सस्य वैज्ञानिकों के लिये प्राथमिक महत्व का भाग है जिसकी गुणवत्ता उपभोक्ता, व्यापारी तथा कृषक के लिये लाभदायक सिद्ध हो सकती है ।

अतः मूँगफली की गुणवत्ता से तात्पर्य मुख्य रूप से उसके दाने (nuts) की गुणवत्ता से होता है । दाने में जितने अधिक प्रतिशत तेल, प्रोटीन, वसा व विटामिन्स उपस्थित होंगे यह उतना ही अधिक मूल्य का माना जायेगा तथा फसल का कुल मूल्य भी उतना ही अधिक होगा और उतना ही अधिक लाभ कृषक को भी पहुँचेगा ।

मूंगफली के पौधे में दाना इसकी फलियों में बनता है जिसे पैगिंग (pegging in hindi) कहा जाता है ।

अतः दाने की गुणवत्ता को वैज्ञानिकों ने उसकी फली के साथ ही जोड़कर एकीकृत (integrated) रूप से परिभाषित किया है ।


मूँगफली में गुणवत्ता के मूल्यांकन के लिये निम्न परिभाषायें प्रायः प्रचलित हैं -

सामान्य अवस्था ( General Condition ) -

सामान्यतः सुनहरी, पीले रंग की फलियाँ (pods) उच्च गुणवत्ता वाली मानी जाती हैं । फलियों के दानों (kernels) का रंग गुलाबी लाल उचित माना जाता है । मूँगफली की फलियाँ और दाने पूर्ण परिपक्व, स्वस्थ, ओजपूर्ण, ठोस, रोगाणुरहित तथा समान आकार के होने चाहियें । मूँगफली में फलियों की भौतिक अवस्था (physical appearance) को भूमि की किस्म, कटाई के समय मृदा में नमी तथा कटाई के बाद वायुमण्डल की आर्दता के अतिरिक्त फसल की परिपक्व अवस्था में कटाई आदि कारक प्रभावित करते हैं । उचित सस्य क्रियाओं के प्रयोग से अच्छी गुणवत्ता वाली फलियाँ व दाने प्राप्त किये जाते हैं ।


फलियों का परीक्षण भार ( Test weight of pods ) -

मूँगफली की किसी जाति की 1000 फलियों के भार को उस जाति की 'फलियों का परीक्षण भार' कहा जाता है । यह फलियों के आकार व भार पर निर्भर करता है । फलियों का आकार बड़ा होने पर परीक्षण भार भी अधिक होता है । यह मूँगफली की जाति व भूमि में पाये जाने वाले पोषक तत्वों पर निर्भर करता है । पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु खादों एवं उर्वरकों का प्रयोग कर फलियों के परीक्षण भार को बढ़ा सकते हैं ।


फलियों का आयतनात्मक भार ( Volumetric weight of pods ) -

मूँगफली की फलियों के इकाई आयतन के भार को 'फलियों का आयतनात्मक भार' कहा जाता है । मूँगफली की छोटी फलियों वाली जातियों का आयतनात्मक भार प्रायः वड़ी फलियों वाली जातियों के भार से अधिक होता है । फलियों का आयतनात्मक भार फलियों के दानों के भार तथा उनकी अवस्था को प्रदर्शित करता है । फलियों में दानों की परिपक्वता (maturity) कम होने पर फलियों का आयतनात्मक भार कम होता है । इसके परिणामस्वरूप कृषक को उसकी फसल का अधिक मूल्य नहीं मिल पाता है । अतः फलियों में दाने के पूर्णरूप से व भार दोनों बढ़ जाते हैं । परिपक्व हो जाने पर ही फसल की कटाई करनी चाहिये । ऐसा करने से दानों का भार और आकार दोनों बढ़ जाते है ।


दानों का परीक्षण भार ( Test weight of kernels ) -

मूँगफली की किसी जाति की फलियों से निकाले गये 1000 दोनों का भार उस जाति के 'दानों का परीक्षण भार का परीक्षण भार' कहलाता है । परीक्षण भार को विभिन्न कारक जैसे फसल की जाति (variety) कटाई के समय फसल की परिपक्वता (maturity), खाद व उर्वरकों का प्रयोग, वर्षा का वितरण आदि प्रभावित करते हैं । मूँगफली की फसल को पर्याप्त मात्रा में खाद एवं उचित जल प्रबन्ध से दोनों का आकार व भार दोनों में वृद्धि होती है ।


दानों का प्रतिशत भार ( Percentage weight of kernels ) –

यह मूँगफली की फलियों में दाने का प्रतिशत भार होता है अर्थात् मूँगफली की 100 ग्राम फलियों में कितने ग्राम गिरी है यही उसके 'दानों का प्रतिशत भार' कहलाता है । फलियों का छिलका मोटा व भारी होने पर दानों का प्रतिशत भार कम रह जाता है ओर मूँगफली का बाजार मूल्य कम हो जाता है । इसके विपरीत पतले व हल्के छिलकों वाली फलियों में दानों का प्रतिशत भार अधिक होता है और उसमें उपयोगी पदार्थ भी अधिक होता है । दानों के प्रतिशत भार को भूमि में खाद और उर्वरकों के प्रयोग से बढ़ाया जा सकता है ।


तेल की प्रतिशत मात्रा ( Percentage amount of oil ) -

मूँगफली के दानों में 40-50 % तक तेल पाया जाता है जिसका उपयोग तेल की प्रतिशत मात्रा अधिक होने पर मूँगफली उचित गुणवत्ता वाली मानी जाती है और उसका बाजार मूल्य भी अधिक निर्धारित होता है । मूँगफली में तेल की प्रतिशत मात्रा इसकी किस्म (variety) में पाया जाने वाला एक आनुवंशिक गुण है । तेल की प्रतिशत मात्रा को वायुमण्डल का तापमान तथा वर्षा का वितरण आदि कारक भी प्रभावित करते हैं । अतः उपयुक्त आनुवंशिक गुणों वाली जाति का चुनाव व अन्य सस्य प्रबन्धन क्रियाओं से किस्म के पूर्ण आनुवंशिक गुणों की फसल का उत्पादन किया जा सकता है ।


तेल की रखाव क्षमता ( Keeping Quality of oil ) -

यह मूँगफली की गुणवत्ता के मूल्यांकन (valuation) में एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण पैमाना है । मूँगफली के तेल में मुक्त वसा अम्लों की प्रतिशत मात्रा उसकी रख रखाव क्षमता को निर्धारित करती है । तेल में इनकी अधिकतम मात्रा 2.5 तक स्वीकार्य है । इससे अधिक होने पर इसे अधिक समय तक सुरक्षित रखना सम्भव नहीं होता है । अतः तेल में मुक्त वसा अम्लों की मात्रा कम होनी चाहिये ।

इसे निर्धारित करने के लिये विभिन्न कारकों में मौसम की अवस्था, फलियों की अपरिपक्व अवस्था में तुड़ाई, फलियों की कम सुखाई, भण्डारण के समय नमी प्रतिशतता तथा क्षीण व क्षतिग्रस्त दाने (kernels) आदि सम्मिलित होते हैं ।

भारत में मूँगफली की खेती तीनों मौसमों में की जाती है और खरीफ में यह लगभग 80% होती है । असिंचित व सिंचित अवस्थाओं में इसकी उपज क्रमशः 12 क्विटल/हैक्टेयर तथा 25-35 क्विटल/हैक्टेयर तक होती है । उपज बढ़ने पर कृपक के लिये एक लाभदायक स्थिति बनती है । साथ - साथ इसके दाने में तेल की अधिक प्रतिशत मात्रा तथा इसकी अच्छी रख - रखाव गुणवत्ता भी इसके मूल्य को निर्धारित करती है ।

अतः मूँगफली में गुणवत्ता बनाये रखने के लिये कृषकों को विभिन्न विन्दुओं जैसे- उपयुक्त जाति का चुनाव, पर्याप्त मात्रा में खाद व उर्वरक , सिंचाई जल की पर्याप्त सुविधा, फलियों के पूर्ण रूप से परिपक्व अवस्था में तुड़ाई, कटाई के पश्चात् उचित भण्डारण आदि को ध्यान में रखते हुये खेती करनी चाहिये ।

Please do not enter any spam link in the comment box.

Previous Post Next Post