शून्य भू-परिष्करण (जीरो टिलेज) क्या है इसके प्रकार एवं लाभ व विशेषताएं

जब किसी फसल की कटाई के बाद फसल के अवशेषों के बीच कम से कम जुताई या बिना जुताई किये ही दूसरी फसल की बुआई कर दी जाती है, तो ‌ इसे शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) कहते है ।

शून्य भू-कर्षण या जीरो टिलेज को न्यूनतम भू-परिष्करण (minimum tillage in hindi) के नाम से भी पुकारा जाता है ।


शून्य भू-परिष्करण का अर्थ एवं परिभाषा | meaning & definition of zero tillage in hindi

वैपूमर तथा वैकरमैन्स के अनुसार -

शून्य भू-परिष्करण (जीरो टिलेज) प्रणाली वह प्रणाली है, जिसमें बीज शैय्या की तैयारी हेतु भूमि की कम से कम जुताई की जाती है ।

आमतौर पर इस विधि में खेत की जुताई बीजों की बुआई के समय उन्हें उचित गहराई पर भूमि में मिलाने के लिये ही की जाती है तथा खरपतवार को जैविक विधियों के द्वारा समाप्त किया जाता है अथवा उन्हें भू-पलवार आदि के लिए उपयोग में लाया जाता है ।


शून्य भू-परिष्करण क्या है | what is zero tillage in hindi

शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) का अभिप्राय अवांछित वनस्पतियों/खरपतवारों को अन्य वैकल्पिक विधियों से नियंत्रित करके मृदा में कम से कम खुदाई-गुड़ाई करके फसल उत्पादन से है । यह न्यूनतम भू-कर्षण का चरण बिन्दु होता है ।

यद्यपि इस विधि के अंतर्गत भी बीजाई एवं पौधा रोपण आदि के लिए भूमि को कुछ सीमा तक गोदा - खोदा अवश्य जाता है किन्तु सम्पूर्ण खेत की मिट्टी को उलटा - पलटा नहीं जाता । व्यावहारिक रूप से इस विधि में केवल बुआई के लिए ही कुंड बनाई जाती है अथवा बीजों को डिबलर विधि द्वारा बोया जाता है । 

यह विधि ऐसी हल्की भूमि के लिए वरदान है जिसमें अच्छी जल निकास हो तथा जो उत्तम जीवाणुयुक्त हो । साथ ही शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) की जाने वाली भूमि की भौतिक दशा ठीक होनी चाहिए तथा इसमें जीवांश - पदार्थ होने चाहिए ।

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शून्य भू-परिष्करण खेती के प्रकार | types of zero tillage farming in hindi

वर्तमान में शून्य भू-कर्षण या शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) खेती के अनेक प्रकार प्रचलन में हैं ।


शून्य भू-परिष्करण खेती के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित है -

  • संरक्षण कृषि ( Conservation Agriculture )
  • प्राकृतिक खेती ( Natural Agriculture )
  • ऋषि खेती ( Rishi Agriculture )
  • वन खेती ( Forest Agriculture )


1. संरक्षण कृषि ( Conservation Agriculture ) -

शून्य भू-कर्षण तकनीक पर आधारित खेती का यह मॉडल इज्राइल देश में विकसित किया गया है जो वर्तमान में पश्चिमी देशों में भी लोकप्रिय होता जा रहा है । पर्यावरण संरक्षण के सिद्धान्तों एवं नीतियों पर आधारित है । इसके अंतर्गत पहले ऊबड़ - खाबड़ भूमि को लेजर की सहायता से समतल बनाया जाता है और तदुपरांत कम से शून्य कर्षण विधि से बीजाई करके ड्रिप अथवा स्प्रिंकलर्स की सहायता से सिंचाई की जाती है । खरपतवारों के पौधों को उगते ही उखाड़ दिया जाता है तथा कीड़ों व रोगों से बचने के लिए अकरकरा की धूल एवं लाभप्रद कीड़ों एवं जीवाणुओं का उपयोग किया जाता है । खाद के रूप में जैविक खाद जैसे - हड्डियों का चूरा, शैवाल, बायो गैस प्लांट की खाद आदि का प्रयोग किया जाता है ।


2. प्राकृतिक खेती ( Natural Agriculture ) -

प्राकृतिक खेती जापान के किसान एवं दार्शनिक मसानोबू फुकुओका (masanobu fukuoka) द्वारा स्थापित कृषि की पर्यावरणीय पद्धति है । उन्होंने जापानी भाषा में लिखी अपनी पुस्तक सिजेन नोहो (shizen noho) में वर्णन किया है । खेती की तकनीक के अंतर्गत परम्परागत खेती की अनेक प्रमुख क्रियाओं, जैसे - जुताई, गुडाई, निराई, छंटाई, उर्वरक, कीटनाशक आदि से आंशिक अथवा पूर्णतः किनारा करने की सलाह दी जाती है ।


3. ऋषि खेती ( Rishi Agriculture ) -

शून्य भू-कर्षण तकनीक पर आधारित खेती का यह भारतीय प्रकार है । इसके अंतर्गत स्थानीय फसलों एवं जड़ीबूटियों की खेती की जाती है । खेती का यह प्रकार भारतीय शुष्क प्रदेशों जैसे- राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश आदि के लिए विशेष रूप से विकसित किया गया है । ऋषि खेती का आधार भारतीय प्राचीन साहित्य है तथा इसके अंतर्गत भारतीय प्रतीकों एवं परम्पराओं का निर्वहन किया जाता है, जैसे- वर्षा के उपरांत हल बैल अथवा छोटे कृषि यंत्रों की सहायता से बिना जुते खेत में कुंड बना कर बीजाई करना, नीम के तेल खल आदि का कीट नाशकों के रूप में उपयोग करना एवं गौवंशीय पशुओं के गोबर एवं मूत्र से बने खाद का प्रयोग करना ।


4. वन खेती ( Forest Agriculture ) -

शून्य भू-कर्षण तकनीक पर आधारित यह खेती एवं बागवानी का मिश्रित स्वरूप है । वर्तमान भारत में खेती का यह प्रकार कृषि वानिकी एवं सामाजिक वानिकी के आधार के रूप में प्रचारिक एवं लोकप्रिय होने लगा है । इसके अंतर्गत पहले खाली एवं बेकार पड़ी सार्वजनिक व निजी अनुपजाऊ भूमि को अतिजीवी वृक्षों जैसे- नीम, कीकर आदि के रोपण के द्वारा हरा - भरा एवं उपजाऊ बनाया जाता है और तदुपरांत वृक्षों के साथ छाया पसन्द फसलों जैसे - हल्दी, मूंगफली आदि की खेती कम से कम भू-कर्षण विधियों को अपनाकर की जाती है ।

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शून्य भू-परिष्करण तकनीक के लाभ | benifits of zero tillage in hindi


शून्य भू-परिष्करण तकनीक के प्रमुख लाभ हैं -

  • भू-कर्षण न करने से समय एवं धन की बचत होती है ।
  • भू-कर्षण न करने के कारण भूमि का अपरदन बहुत कम अथवा लगभग बिल्कुल नहीं होता है ।
  • इससे भूमि की नमी वाष्पोत्सर्जन द्वारा वातावरण में नहीं उड़ती तथा बिना सिंचाई अथवा बहुत कम सिंचाई में ही खेती किया जाना संभव होता है ।
  • इससे भूमि के अन्दर एवं बाहर जैव-विविधता की क्षति नहीं होती ।


जीरों टिल ड्रिल अथवा शून्य जुताई द्वारा बुआई की विशेषताएँ


शून्य भू-परिष्करण तकनीक की प्रमुख विशेषताएं -

  • जीरों टिल ड्रिल के प्रयोग से 75-85% ईंधन, ऊर्जा एवं समय की बचत होती है ।
  • फेलेरिस माइनर अर्थात् गुल्ली - डंडा खरपतवार का कम जमाव होता है ।
  • देरी अवस्था में बुआई समय पर की जा सकती है ।
  • इस मशीन द्वारा 1.5 हेक्टेयर प्रति घंटा बुआई की जा सकती है ।
  • 2500-3000 रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत तैयार की लागत में बचत होती है ।


शून्य भू-परिष्करण तकनीक के प्रमुख सावधानियाँ व सुझाव

  • जीरो टिल ड्रिल से बुआई करते समय किसान भाई पारम्परिक विधि की अपेक्षा अधिक नमी पर बुआई करें ।
  • पूर्ववर्ती फसलों के डंठल 20-30 सेंमी० से अधिक बड़े नहीं होने चाहिए ।
  • जहाँ तक हो सके बुआई धान की दो लाइनों के मध्य में ही करें जिससे जमाव अच्छा होता है ।


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शून्य भू-परिष्करण : व्यावहारिक ( Zero Tillage : Practical Utilization In Hindi )


खाद्यान्न फसलों में धान और गेहूँ का महत्त्वपूर्ण स्थान है । धान - गेहूँ फसल प्रणाली भारत में बहुत प्रचलित है । यह फसल प्रणाली देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए रीढ़ की हड्डी है ।

हमारे देश के उत्तर - पश्चिम और उत्तर-पूर्व में लगभग 12.3 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र धान - गेहूँ फसल चक्र के अंतर्गत आता है ।

यह फसल प्रणाली उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और उत्तरांचल में बहुतायत में अपनायी जाती है । इन प्रदेशों मे कुल कृषि क्षेत्रों का अधिकांश भाग इस फसल चक्र के अन्तर्गत आता है ।

आज किसानों को ऊर्जा संकट, विशेष आर्थिक क्षेत्रों कृषि मदों की बढ़ती कीमतों और ग्लोबल वार्मिंग जैसी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है ।

ये समस्याएँ स्वत: ही विभिन्न समस्याओं को जन्म देती हैं । पिछले चार दशकों में खेती में बहुत - सी समस्याएँ आई हैं । इन समस्याओं को कम करने के लिए भारत अब दूसरी हरित क्रान्ति की ओर अग्रसर है ।

जीरो टिलेज (zero tillage in hindi) तकनीक का गेहूँ की खेती में लागत कम करने और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान है ।

आधुनिक खेती में संरक्षित टिलेज पर जोर दिया जा रहा है । इस तकनीक द्वारा खेती की बिना जुताई किए एक विशेष प्रकार की सीडड्रिल द्वारा फसलों की बुआई की जाती है । जहाँ बीज की बुआई करनी हो, उसी जगह से मिट्टी को न्यूनतम खोदा जाता है । इसमें दो लाइनों के बीच की जगह बिना जुती ही रहती है । बुआई के समय ही आवश्यक उर्वरकों की मात्रा बीज के नीचे डाल दी जाती है ।

इस तरह की बुआई मुख्यतः रबी फसलों जैसे गेहूँ, चना, सरसों और अलसी में ज्यादा कामयाब सिद्ध हुई है । इन फसलों की बुआई देरी की अवस्था में 7-10 दिन पहले ही यानी समयानुसार की जा सकती है ।


अत: शून्य भू-कर्षण या शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) तकनीक द्वारा बुआई करने पर देरी से बोयी गई फसलों में होने वाले नुकसान को बचाया जा सकता है । 

आई० ए० आर० आई० के अनुसंधान फार्म पर किए गए प्रयोगों में बिना जुताई से बोयी गई फसलों की पैदावार 5-10 प्रतिशत अधिक आंकी गई है ।

साथ ही बिना जुताई द्वारा बुआई करने में लागत कम आती है क्योंकि आम किसान बुआई के पूर्व खेत की 3-4 बार जुताई करते हैं जिसके कारण होने वाला खर्चा बच जाता है । साथ ही ट्रैक्टर के रखरखाव पर भी कम लागत आती है । ऐसा अनुमान लगाया गया है कि रबी फसलों की बुआई में 2500-3000 रुपए प्रति हेक्टेयर का खर्चा बचाया जा सकता है ।

इस तकनीक से बुआई करने पर पानी की मात्रा भी कम लगती है क्योंकि एक तो पलेवा यानी बुवाई - पूर्व सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती है । इसके अलावा बाद में भी 1-2 सेंमी० प्रति सिंचाई पानी कम लगता है ।

यह भी अवलोकन किया गया है कि बिना जुताई वाले खेतों में खरपतवारों का कम प्रकोप होता है । इसका कारण यह है कि इस तकनीक में मिट्टी की ज्यादा उलट - पुलट नहीं करते हैं ।

अत: जिन खरपतवारों के बीज मिट्टी की गहरी सतह में होते हैं उन्हें अंकुरण के लिए उपयुक्त वातावरण नहीं मिल पाता है । इसी प्रकार मिट्टी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ और उसके ऊपर निर्भर लाभकारी सूक्ष्म जीव - जंतुओं की क्रियाशीलता पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है जो कि परम्परागत बुआई के तरीके में खेतों की बार - बार जुताई करने पर उपजाऊ शक्ति नष्ट हो जाते हैं । इस तरह मृदा की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने में भी यह तकनीक सार्थक मानी गई है ।


शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) तकनीक में जहाँ एक और खेत तैयार करने में लगे समय, धन और ईंधन की बचत होती है तो वहीं दूसरी तरफ यह पर्यावरण हितैषी भी है । चूँकि इस तकनीक से कार्बन-डाई-ऑक्साइड का 135 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से उत्सर्जन कम किया जा सकता है । यह मानते हुए कि एक लीटर डीजल के जलने से 2.6 किग्रा० कार्बन-डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जो ग्लोबल वार्मिंग का प्रमुख कारण है ।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में संरक्षण खेती की तकनीक पर बड़े पैमाने पर प्रयोग किए गए हैं । यह प्रयोग मुख्यतः धान - गेहूँ, मक्का - गेहूँ, कपास - गेहूँ, अरहर - गेहूँ व सोयाबीन - गेहूँ फसल चक्रों में किए गए हैं । इन प्रयोगों से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि धान की सीधी बुआई वाली फसल की कटाई - उपरांत यदि गेहूँ की बुआई शून्य जुताई तकनीक द्वारा की जाती है तथा गेहूँ की कटाई के तुरंत बाद गर्मियों में मूंग की फसल ली जाती है तो सभी फसलों की पैदावार और शुद्ध लाभ परम्परागत विधि से धान - गेहूँ के फसल चक्र की अपेक्षा अधिक प्राप्त किया जा सकता है ।

इसके अतिरिक्त सीधी बुआई द्वारा धान उगाने से 30-40 प्रतिशत सिंचाई जल की वचत की जा सकती है । शून्य भू-कर्षण या शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) तकनीक का फसलों की पैदावार पर भी कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है । 

बिना जुताई वाली खेती में कुछ सावधानियाँ और मुश्किलें भी हैं । एक तो बुआई के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी होनी चाहिए ताकि मिट्टी और बीज का सम्पर्क अच्छी तरह हो जाए । दूसरे बुआई के समय ज्यादा सावधानी रखने की जरूरत होती है कि कहीं सीड ड्रिल की पाइपें बंद न हो जाएँ । यद्यपि सीड ड्रिल की पाइपें पारदर्शी होती हैं उनसे बीज गिरता हुआ स्पष्ट नजर आता है ।

शून्य भू-परिष्करण (zero tillage in hindi) तकनीक द्वारा बुआई करने पर लगभग 20-25 प्रतिशत ज्यादा मात्रा में बीज और उर्वरक डालना आवश्यक माना गया है क्योंकि कभी - कभी किसी कारणवश प्रति इकाई क्षेत्र पौधों की कम संख्या व बढ़वार की वजह से पैदावार कम न हो । खरपतवारों के नियंत्रण में भी ज्यादा सावधानी की जरूरत होती है ।

इसके लिए बुआई से पहले पेराक्वाट अथवा ग्लाईफोसेट नामक खरपतवारनाशी का प्रयोग करना चाहिए जिससे पहले से उगे हुए सारे खरपतवार नष्ट हो जाएँ । कुछ भारी जमीनों में पौधों की जड़ों की वृद्धि कम हो सकती है । इसके लिए मिट्टी पर फसल अवशेषों या अन्य वनस्पति पदार्थों की परत डालने से पौधों की जड़ों और विकास पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है ।

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