- धान का वानस्पतिक नाम (Botanical Name) - ओराइजा सेटाइवा (Oryza sativa L.)
- धान का कुल (Family) - ग्रेमिनी या पोएसी (Gramineae)
- धान में गुणसूत्र संख्या - 2n = 24
धान विश्व की एक अति महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है ओर धान की खेती (dhaan ki kheti) सम्पूर्ण विश्व भर में की जाती है ।
यह विश्व के लगभग सभी देशो में मुख्य आहार के रूप में खाया जाता है । धान की फसल (dhaan ki fasal) व्यापारिक महत्व की इस फसल की माँग प्राचीनकाल से ही प्रचुरता में रहती है । वर्तमान एवं भविष्य में भी धान की खेती (dhaan ki kheti) के उत्पादन, विपणन एवं उपभोग की विपुल सम्भावनायें बनी रहेंगी ।
धान का आर्थिक महत्व
धान की फसल (dhaan ki fasal) एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है, जिसकी खेती विश्व भर में की जाती है ।
धान विश्व की कुल जनसंख्या के 60% से अधिक का मुख्य भोजन है । इसे अधिकांशत: एशिया महाद्वीप के विभिन्न देशों में उगाया तथा खाया जाता है जिनमें चीन, भारत, इण्डोनेशिया, बांग्लादेश, थाईलैण्ड व बर्मा आदि देश प्रमुख है । चावल एक स्टार्च (starch) एवं उच्च ऊर्जायुक्त भोजन है ।
इसमें लगभग 80% कार्बोहाइड्रेट्स, 7% प्रोटीन, 3% वसा तथा 1% खनिज लवण पाये जाते हैं । विश्व की आधे से अधिक जनसंख्या प्रतिदिन भोजन के रूप में चावल का उपभोग करती है । भारत में भी इसके विभिन्न व्यंजनों को लोग बड़े चाव से खाते हैं । धान के सूखे पौधे का उपयोग पशुओं के लिये चारे तथा छप्पर बनाने में किया जाता है । यह गत्ता बनाने लिये भी उपयोग में लाया जाता है । धान की भूसी (Rice husk) का उपयोग विद्युत उत्पादन हेतु तापगृहों में भी किया जाता है ।
धान का उत्पत्ति स्थान एवं इतिहास
डी कैण्डोल (1986) के अनुसार,
चावल का उत्पत्ति स्थान दक्षिणी भारत है ।
वेविलोव के मतानुसार,
भारत व बर्मा धान के जन्म स्थान माने जाते हैं ।
संस्कृत एवं अन्य ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि धान की खेती (dhaan ki kheti) ईसा पूर्व से ही भारत में होती जा रही है । भारत में उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ शहर के निकट हस्तिनापुर नामक स्थान पर खुदाई के अवशेषों में चावल प्राप्त हुआ है ।
यहाँ वैदिक काल से ही चावल, विभिन्न धार्मिक त्यौहारों एव सांस्कृतिक अवसरों पर अनिवार्य रूप से उपयोग में लाया जाता है । भारत से ही चावल का प्रचार एवं प्रसार बर्मा, चीन, अफ्रीका व विश्व के अन्य देशों को हुआ है ।
धान का वानस्पतिक विवरण
धान का वानस्पतिक नाम Oryza sativa L. है जो Gramineae कुल से सम्बन्धित है ।
यह एक एकवर्षीय पौधा है । इसकी ऊँचाई सामान्यतः 50 से 150 सेमी. तक होती है, लेकिन गहरे पानी में उगने वाली कुछ विशेष जातियों की लम्बाई 8 मीटर तक भी होती है । इन जातियों के पौधे खेत में जल का स्तर बढ़ने के साथ - साथ लम्बाई में वृद्धि करते रहते हैं । इसके पौधे में जड़, प्ररोह, पत्तियाँ, पुष्प व दाने आदि भाग होते हैं ।
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धान का भौगोलिक वितरण
भारत एवं चीन धान के प्रमुख उत्पादक देश है । भारत में धान को विभिन्न प्रकार के व्यंजनों के रूप में पकाकर खाया जाता है । भारत वर्तमान समय में लगभग 120 मिलियन टन चावल का उत्पादन होता है जो सम्पूर्ण विश्व के उत्पादन का लगभग 20% है ।
चीन लगभग 190 मिलियन टन चावल का उत्पादन करता है जो कुल का लगभग 30% है । सम्पूर्ण विश्व में चीन के बाद भारत का चावल उत्पादन में द्वितीय स्थान है । इनके अतिरिक्त बांग्लादेश, मलेशिया, वियतनाम, थाइलैण्ड, फिलीपीन्स, बर्मा, जापान तथा कोरिया आदि अनेक देशों में भी इसकी खेती की जाती है ।
भारतवर्ष के विभिन्न भागों में धान की खेती (dhaan ki kheti) प्राचीनकाल से होती है । भारत में धान उत्पादक प्रमुख राज्यों में बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, असम, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु तथा आन्ध्रप्रदेश आदि हैं । वर्तमान समय में विश्व में धान का उत्पादन लगभग 600 मिलियन टन है । सम्पूर्ण विश्व की कुल माँग की आपूर्ति करता है । ऐसा अनुमान है कि सन् 2025 तक लगभग 775 मिलियन टन चावल की आवश्यकता सम्पूर्ण विश्व को होगी ।
अतः इतनी अधिक माँग की पूर्ति के लिये यह आवश्यक हो गया है कि उत्पादन वृद्धि के विभिन्न उपायों को विकसित किया जाये जिससे पृथ्वी पर खाद्य सुरक्षा (food security) की स्थिति बनी रहे । यहाँ यह तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि चावल में चीन का क्षेत्रफल भारत से कम होते हुये भी वहाँ का कुल उत्पादन भारत से अधिक है । चीन में चावल का क्षेत्रफल लगभग 31 मिलियन हैक्टेयर और उत्पादन 190 मिलियन टन है जबकि भारत में इसका क्षेत्रफल लगभग 43 मिलियन हैक्टेयर और उत्पादन 120 मिलियन टन है ।
अतः हमारे देश में धान की उत्पादकता को बढ़ाने के लिये विस्तृत एव प्रचुर सम्भावनायें है । इसके लिये हमें धान की बौनी जातियाँ, संकर बीज का प्रयोग, अधिक कल्लों व दानों वाली जातियों का प्रयोग जैसे अन्य नये सफल वैज्ञानिक उपायों को अपनाकर धान की उत्पादन वृद्धि पर विचार करना चाहिये जिससे विश्व में चावल निर्यात कर विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जा सके ।
भारत का कौन-सा राज्य ‘राइस बाउल' के नाम से जाना जाता है?
चावल की विभिन्न जातियों में विद्यमान औषधीय गुणों के कारण इसका उपयोग प्राचीनकाल से ही आयुर्वेद तथा यूनानी दवाओं में होता जा रहा है । आयुर्वेद में चावल को एक उत्तेजक कामोद्दीपक और मोटापा बढ़ाने वाली एक बलवर्धक औषधि के रूप में माना जाता है ।
छत्तीसगढ़ राज्य में चावल की विभिन्न जातियों की खेती प्राचीनकाल से ही की जाती है तथा यहाँ के निवासी इसकी खेती व इसकी जातियों के औषधीय गुणों का परम्परागत ज्ञान रखते हैं । इसी कारण से इस राज्य को 'भारत का राइस बाउल' (Rice Bowl of India) के रूप में जाना जाता है ।
चावल के औषधीय गुण एवं महत्व
प्राचीनतम् आयुर्वेदिक एवं यूनानी साहित्य के अध्ययन से विदित होता है कि चावल में विभिन्न औषधीय गुणों की क्षमता होती है ।
चावल के गुण एवं महत्व निम्नलिखित है -
- चावल एक उत्तेजक खाद्य पदार्थ है ।
- कामोद्दीपक है ।
- मोटापा बढ़ाने वाला माना जाता है ।
- बलवर्धक होता है ।
- अतिसार में यह एक सुरक्षित आहार है ।
- चावल के माँड का सेवन शरीर को शीतलता प्रदान करता है ।
- त्वचा सम्बन्धी बीमारियों पर नियन्त्रण में लाभदायक है ।
- जोड़ों के दर्द निवारण में प्रभावकारी हैं ।
- लकवे प्रभावित रोगियों के लिये लाभदायक है ।
- चावल की भूसी सिरदर्द व जीर्णकफ के निवारण में सहायक है ।
स्वर्ण चावल (गोल्डन राइस) किसे कहते है?
यह जैव तकनीक का एक प्रायोगिक उदाहरण है । यह चावल की एक नवीनतम एवं आनुवंशिक रूप से परिवर्द्धित (Genetically modified) जाति है । धान की इस जाति का विकास स्विट्जरलैण्ड के वैज्ञानिक इंगो पाटरीकुश ने किया है । इस जाति के चावलों का रंग साधारण जातियों के सफेद रंग से अलग पीला होता है तथा यह बहुत ओजपूर्ण होता है । अत: इसे गोल्डन राइस कहते है ।
इसे स्वास्थ्य एवं पोषण की समस्या को हल करने के लिये विकसित किया गया है । इसमें विटामिन A की मात्रा तुलनात्मक रूप से अधिक पाई जाती है । चावल की यह जाति नेत्र रोगियों के लिये लाभदायक है ।
धान की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
धान एक उष्ण एवं उपोष्ण जलवायु की फसल है ।
धान के पौधे में विभिन्न प्रकार की जलवायु में उगाने की क्षमता होती है । इसकी उचित बढ़वार के लिये 20-30°C तामान तथा नम आर्दतायुक्त धूपदार वातावरण उपयुक्त रहता है । धान की खेती (dhaan ki kheti) अधिक वर्षा (100-200 सेमी.) वाले क्षेत्रों में अधिक उपयुक्त रहती है । सुमद्रतल से लेकर ऊँचे हिमालय पर्वत पर 3000 मी. की ऊँचाई तक इसकी खेती की जाती है ।
धान की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी
धान की अच्छी पैदावार के लिये चिकनी मटियार या मटियार दोमट मिट्टी सबसे अधिक उपयुक्त है, क्योंकि इसमें पानी को अधिक समय तक रोका जा सकता है । यह धान की अच्छी बढ़वार के लिये आवश्यक होता है । धान के लिये उपयुक्त मिट्टी का pH मान 6.5 होता है ।
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धान की खेती कैसे करें? | Dhaan ki kheti kaise kare?
धान अनाज की एक अति महत्वपूर्ण फसल है, विश्व के विभिन्न देशों में धान की खेती (dhaan ki kheti) की जाती है । भारत में लगभग 40 मिलियन हैक्टेयर भूमि पर धान की खेती (dhaan ki kheti) की जाती है और लगभग आधे क्षेत्रफल में वर्षा पर आधारित खेती की जाती है ।
धान की खेती कैसे करें पूरी जानकारी हिन्दी में | dhaan ki kheti kaise kare? |
धान की प्रजातियों के नाम एवं उनकी की बुवाई व कटाई के आधार पर वर्गीकरण
धान अनाज फसल में एक महत्वपूर्ण फसल है, जिसकी विश्व के लगभग सभी देशों में धान की खेती (dhaan ki kheti) की जाती है ।
भारत में भी धान एक मुख्य खद्यान फसल है, जो सभी राज्यों में मुख्य आहार के रूप में खाया जाता है । भारत में विभिन्न स्थितियों में धान की खेती (dhaan ki kheti) की जाती है इसीलिए वहां के अनुकूल वातावरण एवं खेती की प्रणाली (kheti ki prnali) के अनुसार उन्नत जाति का चुनाव करना अति आवश्यक होता है ।
भारत में बोई जाने वाली धान की जातियों का वर्गीकरण
भारत में विभिन्न स्थितियों में बोई जाने वाली धान की किस्में (dhaan ki kisme) की बुवाई एवं कटाई का समय भिन्न होता है ।
भारत में बोई जाने वाली कुछ प्रमुख जातियों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है -
- ऊँची भूमि वाले क्षेत्रों में बोई जाने वाली धान की किस्में
- निचली या वर्षा आधारित क्षेत्रों में बोई जाने वाली धान की किस्में
- सीधी बुवाई के लिए बोई जाने वाली धान की किस्में
- रोपाई की जाने वाली धान की किस्में
- पकने की अवधि के आधार पर बोई जाने वाली धान की किस्में
- कीट व बीमारी रोधी बोई जाने वाली धान की किस्में
- सूखा रोधी वाले क्षेत्रों में बोई जाने वाली धान की किस्में
- जल रोधी के आधार पर बोई जाने वाली धान की किस्में
- लवण व क्षार रोधी के आधार पर बोई जाने वाली धान की किस्में
धान की प्रजातियों के नाम
विभिन्न स्थितियों में उगाई जाने वाली धान की प्रजातियां निम्नलिखित है -
धान की प्रजातियों के नाम एवं उनकी की बुवाई व कटाई के आधार पर वर्गीकरण |
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धान की किस्में | dhaan ki kisme
1. ऊँची भूमियों के लिये धान की किस्में
सामान्यतः किसान ऊँची भूमियों में लम्बी बढ़ने वाली जातियों की बुवाई करते है, इन किस्मों की उपज कम होती है । ऊँची भूमियों में बोई जाने वाली किस्में अपना जीवनकाल 70-100 दिनों में पूरा करती है । इनकी जड़ें भूमि में गहरी जाती है, ये जातियाँ कम पानी चाहने वाली होती हैं । इन जातियों की क्षमता जल्दी पकने की होती है । इन जातियों पर विभिन्न रोगों का प्रकोप भी कम होता है ।
इस वर्ग की प्रमुख किस्में -
- वन्दना
- स्नेहा
- पूर्वा
- सातन
- वनप्रभा
- सुभद्रा
- त्रिपति
- तारा
- हीरा
- कल्याणी- II
- कलिंग- II
- अन्नपूर्णा
- पथरा
- प्रभात
- केसरी
- सुफाला
- नरेन्द्र -1
- किरण
- शंकर
- रूद्र व आभा आदि है ।
2. वर्षा आधारित नीची भूमियों के लिये धान की किस्में
ऐसे क्षेत्र जहाँ पर जलवायु की अनिश्चितता बनी रहती है उगने वाली जातियों में सूखा, बाढ़, अम्लता, ठण्ड आदि को सहन करने की क्षमता बढ़ जाती है ।
इस वर्ग की प्रमुख किस्में -
- महसुरी
- मधुरी
- सवर्ण
- रणजीत
- कुशल
- राधा
- सुगन्ध
- जयश्री
- निरजा
- पंकज
- जौगन
- सावित्रि
- रामकृष्ण
- महालक्ष्मी
- आदित्य
- धरती
- रंगीली
- वैदेही
- सुधा
- बीराज
- अमूल्य
- दिनेश
- तुलसी
- मनोहरसाली
- मधुकर
- जलप्रिय
- जलमग्न व जलनिधि आदि है ।
3. उत्तर प्रदेश के लिये धान की किस्में
उत्तर प्रदेश में उगाई जाने वाली धान की संस्तुत किस्में बुवाई व रोपाई के आधार पर निम्न दो वर्गों में विभाजित की जाती है ।
( i ) सीधी बुवाई वाली धान की किस्में -
- साकेत - 4
- कावेरी
- बाला
- नगीना - 221 आदि ।
( ii ) रोपाई की जाने वाली धान की किस्में -
- प्रसाद
- बी. एल - 8
- साकेत - 8
- रत्ना
- साकेत - 4
- I.R. - 8
- L.R. - 20
- साकेत - 5
- Type - 9
- Type - 23
- Type - 100
- जया
- IR24
- सरजू - 49 तथा सरजू -50 आदि ।
पकने की अवधि के आधार पर उत्तर प्रदेश के लिये संस्तुत की गई जातियाँ निम्न प्रकार है -
( i ) कम अवधि में पकने वाली धान की किस्में -
ये किस्में अपना कार्यकाल 90 से 110 दिन में पूरा करती है ।
उदाहरण -
- बाला
- कावेरी
- पूसा - 2-21
- सरजू -49
- सरजू -50
- Type - 43 व नगीना -22 आदि ।
( ii ) मध्यम अवधि में पकने वाली धान की किस्में -
ये किस्में अपना कार्यकाल 111 से 130 दिनों में पूरा करती हैं ।
उदाहरण -
- जया
- I.R. - 20
- साकेत -5
- चकिया -59 (कम गहरे पानी के लिये)
- मधुकर (अधिक गहरे पानी के लिये)
- Type - 3 व Type - 21 आदि ।
( ii ) अधिक समय में पकने वाली धान की किस्में -
ये जातियाँ बुवाई से कटाई तक 130 दिन से अधिक समय लेती है ।
उदाहरण -
- Type - 9
- Type - 23
- Type - 26
- जलमग्न (4.5 मीटर तक उगने की क्षमता) व जयसूर्या (2.4 मीटर तक उगने की क्षमता) ।
4. कीट व बीमारी रोधी किस्में
कीटरोधी धान की किस्में -
- सुरक्षा
- सुरेखा
- रूचि
- अभय
- साथी
- गौरी
- शक्तिमान व ललाट आदि ।
रोगरोधी धान की किस्में -
- तुलसी
- I.R. - 64
- अजय व PR. - 10 आदि ।
5. सूखा रोधी धान की किस्में
- बाला
- किरण
- CO - 31
- चौधरी -45
- CRM - 13, 32 एवं 41 आदि ।
6. जलरोधी धान की किस्में
- पंकज
- महसूरी
- जगन्नाथ
- गौतमी
- वशिष्ठ व CR - 1014 आदि ।
7. लवण व क्षार रोधी धान की किस्में
- विकास
- CSR - 5 व CSR - 10 आदि ।
धान की मुख्य प्रजातियों के नाम
- धान की कम अवधि में पकने वाली प्रजातियों के नाम - बाला, कावेरी, पूसा 2-21, सरजू - 45, एवं सरजू -50 ।
- मध्यम अवधि में पकने वाली धान की प्रजातियों के नाम - जया, IR-20, साकेत, चौकिया एवं मधुकर ।
- संकर धान की प्रजातियों के नाम (हाइब्रिड धान की किस्म) - APRH-1, APRH-2, MGR-1, KRH-1 एवं KRH-2 ।
- निचली भूमियों में उगने वाली धान की प्रजातियों के नाम - राधा, सुगंध, जयश्री, वैदेही एवं स्वर्ण ।
- ऊंची भूमियों में उगने वाले धान की प्रजातियों के नाम - बाला, कावेरी, रत्ना, गोविंद एवं पूसा 2-21 ।
- धान की सीधी बुवाई वाली प्रजातियों के नाम - बाला, कावेरी, साकेत -4, नगीना -22, एवं गोविंद ।
- धान की रोपाई की जाने वाली प्रजातियों के नाम - प्रसाद, रत्ना, बी ० एल ० -8, साकेत - 8 एवं साकेत - 4 ।
- धान की जल रोधी प्रजातियों के नाम - पंकज, महसूरी, जगन्नाथ, गौतमी, एवं वरिष्ठ ।
भारत में धान की उन्नत खेती
भारत में धान की खेती (dhaan ki kheti) पूर्णतया वर्षा पर निर्भर करती है । इसी कारण से प्रतिवर्ष धान की उपज में उतार - चढ़ाव आता रहता है ।
किसी भी क्षेत्र में धान की खेती (dhaan ki kheti) के लिये भूमि का चुनाव करते समय भूमि की स्थिति, भूमि की किस्म, सिंचाई के साधन, कृषि मजदूरों की उपलब्धता, वर्षा की प्रचण्डता व वर्षा का वितरण आदि कारकों की जानकारी आवश्यक है ।
भारत में धान की खेती निम्न प्रकार की भूमियों में की जाती है -
- निचली भूमियों में धान की खेती ( Low land Cultivation )
- ऊँची भूमियों में धान की खेती ( Upland Cultivation )
1. भारत में निचली भूमियों में धान की उन्नत खेती कैसे करें?
धान की खेती (dhaan ki kheti) अधिकतर नीची भूमियों (low lands) में सफलतापूर्वक की जाती है । धान उगाने की यह प्रणाली पर्याप्त सिंचाई की सुविधाओं के उपलब्ध होने पर ही अपनाई जा सकती है । इस विधि में अंकुरित बीज प्रत्यक्ष रूप से लेहयुक्त खेत (Puddled field) में बिखेरकर बोये जाते है या नर्सरी में तैयार विधि की खेत में रोपाई कर दी जाती है ।
धान की रोपण विधि
इस विधि की सफलता नर्सरी में तैयार पौध पर निर्भर करती है । यदि नर्सरी में तैयार पौध स्वस्थ व पुष्ट है तो एक अच्छी फसल की सम्भावना की जा सकती है ।
धान की खेती के लिए भूमि का चुनाव कैसे करें?
धान की नर्सरी तैयार करने के लिये उपजाऊ व उत्तम जल निकास युक्त भूमि का चुनाव करना चाहिये । इस भूमि पर सिंचाई जल का उचित प्रबन्ध होना अनिवार्य है ।
धान की खेती के लिए स्वस्थ बीज का चुनाव करना चाहिए?
हमेशा ही किसी भी जाति का शुद्ध व प्रमाणित बीज का चयन करना चाहिये । इस बीज की अंकुरण क्षमता भी अधिक होनी चाहिये ।
धान की बीज दर कितनी होती है?
मोटे दाने वाली जातियों का बीज 40 किग्रा./ हैक्टेयर खेत की पौध नर्सरी में तैयार करने के लिये पर्याप्त रहता है ।
बीज को जल में डुबाना
नर्सरी में बीज की बुवाई से पूर्व बीज को जल में 24 घण्टे के लिये भिगोकर बुवाई करने से अंकुरण अधिक होता है । जल के स्थान पर संवर्धक घोलों (starter solutions) के प्रयोग से अंकुरण प्रतिशत अधिक होता है तथा उपज में वृद्धि होती है ।
धान की पौध कैसे तैयार की जाती है?
नर्सरी में धान की पौध तैयार करने के लिये निम्न क्रियाओं को अपनाना चाहिये -
धान की पौध कैसे तैयार की जाती है? |
धान की नर्सरी का क्षेत्रफल कितना होता है?
एक हैक्टेयर खेत में धान की रोपाई के लिये 500 वर्गमीटर क्षेत्रफल में नर्सरी की पौध तैयार करनी चाहिये ।
धान की नर्सरी कितने प्रकार की होती है?
धान की नर्सरी तीन प्रकार से तैयार की जा सकती है -
( i ) गीली नर्सरी ( Wet Nursery ) -
- इस प्रकार की नर्सरी के लिये सिंचाई जल की पक्की व्यवस्था होनी चाहिये ।
- रबी की फसल की कटाई के बाद 3-4 बार खेत की जुताई करनी चाहिये ।
- इस खेत में नर्सरी तैयार करने के लिये बीज की बुवाई से एक माह पूर्व गोबर की सड़ी हुई खाद 10 टन प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करनी चाहिये ।
- खेत को गीला करने के लिये 2-3 बार खेत में 5 सेमी. ऊँचाई तक पानी खड़ा रखना चाहिये ।
- अंकुरित बीजों को गीले खेत में बिखेर दिया जाता है और एक हल्की सी सिंचाई कर दी जाती है ।
- बीजों का अंकुरण पूर्ण रूप से होने तक खेत की फव्वारे से हल्की - हल्की सिंचाई की जाती है ।
- अंकुरण होने के पश्चात् सिंचाई के साधन से नाली द्वारा लगभग 3 सेमी० पानी आवश्यकतानुसार बार - बार देते रहना चाहिये ।
- नर्सरी की बनाई गई छोटी - छोटी क्यारियों में अंकुरित बीजों की बुवाई से पूर्व अन्तिम जुताई के साथ नाइट्रोजन फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग आवश्यकतानुसार करना चाहिये ।
- कीट पतंगों, कीड़ों एवं बीमारियों पर नियन्त्रण के लिये विभिन्न रसायनों का प्रयोग भी आवश्यक है ।
- इसी प्रकार नर्सरी को खरपतवारों से भी युक्त रखना चाहिये । खरपतवारों को मजदूरों से उखड़वा देना चाहिये या रसायनों का प्रयोग करें ।
- जब नर्सरी की पौध 4-5 पत्तियों वाली हो जाये तो क्यारियों की सिंचाई करते है और भूमि के गीला रहते हुये जड़ रहित पौध को उखाड़ देते हैं ।
- इस प्रकार स्वस्थ और कम आयु की पौध खेत में रोपाई हेतु तैयार हो जाती है ।
( ii ) सूखी नर्सरी ( Dry Nursery ) -
- जल की कमी वाले क्षेत्रों में धान की फसल उगाने के लिये सूखी नर्सरी तैयार की जाती है ।
- मई के महीने में 3-4 दिन के अन्तराल पर खेत की 4-5 जुताइयाँ करनी चाहिये ।
- इसी समय पर खेत में 10-15 टन सड़ी हुई गोबर की खाद समान रूप से बिखेरकर प्रयोग की जाती है ।
- नर्सरी वाले क्षेत्र को 1-5 मीटर चौड़ी 15 सेमी ऊँची व आवश्यकतानुसार लम्बाई वाली क्यारियों में बाँट लिया जाता है ।
- इन क्यारियों में सूखे बीजों की बुवाई बिखेरकर कर दी जाती है ओर गोबर की खाद से बीजों को ढक देते हैं ।
- तत्पश्चात् इन क्यारियों की एक हल्की सी सिंचाई की जाती है ।
- इसके बाद खेत की क्यारियों में तीन दिन के अन्तराल के बाद सिंचाई करनी आवश्यक होती है ।
- नर्सरी की क्यारियों में यदि खरपतवार व बीमारियाँ पनप रही हो तो इन पर नियन्त्रण के लिये विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग लाभकारी रहता है ।
( iii ) डपोग नर्सरी ( Dapog Nursery ) -
- धान की पौध तैयार करने की यह एक अनोखी विधि है ।
- इस विधि में पक्के फर्श या पॉलीथीन चादरों के ऊपर पौध तैयार की जाती है ।
- इस विधि में पौध तैयार करने के लिये सिंचाई जल की पक्की व्यवस्था होनी चाहिये ।
- इस विधि की यह विशेषता है कि इसमें पौध जल्दी तैयार हो जाती है ।
- पौध बुवाई के 2 सप्ताह बाद खेत में रोपी जा सकती है ।
- इस विधि में पौध तैयार करने के लिये 50 वर्गमी. क्षेत्रफल पर्याप्त रहता है ।
- खेत की तैयारी गीली नर्सरी के समान ही की जाती है ।
- क्यारियों की अन्तिम जुताई के बाद खेत को समतल करके पॉलीथीन से ढक देते हैं ।
- बुवाई हेतु पूर्व से अंकुरित बीजों का प्रयोग किया जाता है ।
- डेपोग विधि से तैयार पौध को खेत में रोपाई करने के बाद जल स्तर को स्थिर रखना चाहिये ।
- जल स्तर बढ़ने पर पौध के मरने की सम्भावना रहती है ।
धान कब लगाया जाता है?
नर्सरी में बीज की बुवाई के 25 दिन बाद पौध रोपाई हेतु तैयार हो जाती है । इस समय विधि 4-5 पत्तियों वाली होती है ।
धान की रोपाई
पौध की खेत में रोपाई के लिये पंक्ति से पक्ति की दूरी 20 सेमी. व पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी ० रखी जानी चाहिये । देर से रोपी गई फसल में अन्तरण कम कर दिया जाता है ।
धान की खेती में खाद एवं उर्वरक की मात्रा
खाद व उर्वरक प्रयोग करने के लिये भूमि का परीक्षण कर लेना चाहिये । सामान्यतः अधिक उपज देने वाली जातियों के लिये 100-120 किग्रा० नाइट्रोजन, 50 किग्रा. फास्फोरस व मृदा परीक्षण की संस्तुति के अनुसार पोटाश का प्रयोग करना चाहिये । धान की फसल में खैरा बीमारी के लगने की स्थिति में 50 किग्रा. जिंक सल्फेट एक हैक्टेयर खेत में प्रयोग करना चाहिये ।
धान की फसल में सिंचाई की आवश्यकता
धान की फसल के लिये जल की बहुत अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है । नीची भूमियों में धान के लिये 1100 से लेकर 1300 मिमी. जल की आवश्यकता होती है जबकि खेत की तैयारी के लिये 200-400 मिमी. जल की माँग होती है । नर्सरी उगाने के लिये 50 मिमी. जल की आवश्यकता होती है । इस फसल में जल की माँग विभिन्न क्रान्तिक अवस्थाओं पर अलग - अलग होती है ।
धान की क्रान्तिक अवस्थायें
इस फसल में बीजांकुर (Seedling), कल्ले फूटने (Tillering), फूल आने के समय (Flowering) व दानों में दूध पड़ने के समय (Milk dough) आदि जल की आवश्यकता के लिये क्रान्तिक अवस्थायें होती है । खेत में जल का उचित स्तर बनाये रखना चाहिये, खेत की 5 सेमी. गहरी सिंचाई करनी चाहिये ।
धान कब काटा जाता है?
- धान के पौधे फसल पकने के समय पीले पड़ने लगते हैं ।
- उनकी बालियाँ भी पीली पड़ जाती हैं ।
- ऐसी स्थिति में कटाई तुरन्त करनी आवश्यक ।
- फसल के पकने के समय खेत से पानी बाहर निकाल देना चाहिये ।
- ऐसा करने से फसल की कटाई के बाद खेत अगली फसल की बुवाई के लिये उपलब्ध हो जाता है ।
- समय पर फसल की कटाई न करने से दाना झड़कर हानि होने की सम्भावना रहती है ।
- यह फसल फूल आने के एक माह बाद कटाई के लिये तैयार हो जाती है ।
- कटाई के समय धान के दानों को परख लेना चाहिये ।
- उनमें लगभग 25 % नमी उस समय पर होनी चाहिये ।
धान की गहराई
फसल की कटाई के पश्चात् धान के पौधों को खेत में ही एक स्थान पर इकट्ठा कर लिया जाता है । एकत्रित किये गये पौधों के ढेरों को डंडों की सहायता से पीट पीटकर अनाज को अलग कर दिया जाता है । गहराई के लिये शक्ति चालित यन्त्र का प्रयोग भी किया जा सकता है ।
धान की खेती से प्राप्त उपज
अधिक उपज देने वाली जातियों से 50-60 क्विटल / है. और देसी जातियों से 20-25 क्विटल / है. तक उपज प्राप्त होती है ।
2. ऊंची भूमियों में धान की उन्नत खेती कैसे की जाती है?
ऐसे क्षेत्र जहाँ पर वार्षिक वर्षा 700 से 1000 मिमी. तक होती है वहाँ प्रायः सिंचाई की सुविधाओं का अभाव रहता है और फसल सामान्यतः वर्षा पर ही निर्भर करती है । हमारे देश के तमिलनाडु व आन्ध्रप्रदेश राज्यों में इस प्रकार की खेती की जाती है ।
ऐसे करें ऊंची भूमियों में धान की खेती होगा अधिक लाभ
ऊंची भूमियों में धान की आधिक उपज के लिए निम्नलिखित सस्य क्रियाएं अपनाए जाती है -
धान की प्रजातियां
कम समय में पकने वाली धान की जातियों का चुनाव -
ऊँची भूमियों में धान की कम अवधि में पकने वाली तथा अधिक उपज देने वाली जातियों का चुनाव बुवाई हेतु करना चाहिये । इनकी पकने की अवधि 80-100 दिन होती है ।
धान की प्रजातियों के नाम
बाला, कावेरी, रत्ला, गोविन्द, पूसा 2-21, साकेत 4, नरेन्द्र 22, नरेन्द्र 1, सुभद्रा व प्रसाद आदि ।
धान की खेती के लिए भूमि का चुनाव
धान के अधिक उत्पादन के लिये चिकनी, मटियार या मटियार दोमट भूमि का चुनाव करना चाहिये । भूमि का pH मान 5-5-6.5 तक उपयुक्त रहता है । इसी कारण से इस फसल की खेती कुछ हल्की अम्लीय भूमियों में भी हो जाती है । भूमि में पानी धारण करने की क्षमता होनी चाहिये ।
धान के खेतों में जुताई कब एवं कैसे करते है?
- रबी की फसल में कटाई के पश्चात् खेत की एक गहरी जुताई करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं ।
- इस अवधि में वर्षा होते ही खेत की चारों ओर से मेंडबन्दी कर देनी चाहिये ।
- ऐसा करने से वर्षा जल की सम्पूर्ण मात्रा भूमि द्वारा सोखे जाने की सम्भावना बढ़ जाती है ।
- वर्षा जल भूमि द्वारा सोखे जाने से भूमि की जल धारण क्षमता भी बढ़ जाती है ।
- खेत की एक या दो जुताई व हैरो चलाकर व पाटा लाकर खेत की मिट्टी भुरभुरी व खेत भली भाँति तैयार हो जाता है ।
- इस अवधि में खेत में खड़े खरपतवार उखड़ जाते हैं । उनको एकत्र करके जला देना चाहिये ।
धान की बुवाई किस महीने में की जाती है?
धान की फसल की बुवाई का समय वर्षा पर निर्भर करता है । साधारणतया: जून के अन्तिम सप्ताह से जौलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय इस फसल की बुवाई के लिये उपयुकत रहता है ।
धान की बुवाई कैसे करें?
ऊँची भूमियों में धान की बुवाई दो विधियों से की जाती है —
- छिटकवाँ विधि,
- हल पीछे कुंड में ।
धान में अन्तरण कितना रखते है?
धान की फसल की बुवाई हल पीछे कुण्डों में करने पर एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति की दूरी 30 सेमी० रखी जाती है ।
धान में बुवाई की गहराई
धान के बीज या बीजांकुर को बोने के लिये सामान्यतः बुवाई की गहराई 5 सेमी. रखनी चाहिये ।
धान की बीज दर
छिटकवाँ विधि से धान की बुवाई करने पर 100 किया. बीज एक हैक्टेयर खेत के लिये पर्याप्त रहता है । हल के पीछे कूडों में बुवाई करने से बीज की मात्रा 60-80 किग्रा./हैक्टेयर प्रयोग करनी चाहिये ।
धान के बीज को जल में डुबाना
अन्य फसलों की भाँति धान के बीज को बुवाई से पूर्व 24 घण्टे तक जल में डुबाकर रखना चाहिये । तत्पश्चात दो - तीन घण्टे छाया में सुखाकर बीज की बुवाई करने से अंकुरण प्रतिशत में भारी वृद्धि होती है । बीजों को सवंर्धक घोलों (starter solutions) में डुबाकर बोने से अंकुरण प्रतिशत व पौधे का ओज बढ़ता है जिससे उपज भी बढ़ती है ।
धान की खेती में उर्वरक की मात्रा
इन क्षेत्रों में वर्षा की अनिश्चितता के कारण ऊवरकों की निश्चित मात्रा का निर्धारण करना सरल नहीं है । वर्षा सामान्य होने पर 50 किग्रा. नाइट्रोजन, 40 किग्रा. फास्फोरस व 30 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर पर्याप्त रहता है । हल्की भूमियों में बुवाई के समय आधी नाइट्रोजन व सम्पूर्ण फास्फोरस व पोटाश का प्रयोग करना लाभप्रद रहता है ।
कुल नाइट्रोजन का एक चौथाई भाग बुवाई के एक माह बाद व शेष एक चौथाई भाग बुवाई के 50 दिनों बाद प्रयोग करनी चाहिये । यदि भूमि में जिंक की कमी के कारण स्पष्ट दिखाई दे रहे हो तो जिंक की पूर्ति के लिये 20 किग्रा. जिंक सल्फेट एक हैक्टेयर खेत में प्रयोग करना चाहिये ।
धान की फसल में निराई - गुड़ाई एवं खरपतवार नियन्त्रण
- धान की मुख्य फसल खरीफ ऋतु में होने के कारण खेत में खरपतवारों की प्रचुरता रहती है ।
- अत: समय रहते खरपतवारों की संख्या एवं वृद्धि को नियन्त्रित करना उचित रहता है ।
- इस फसल में खरपतवारों पर नियन्त्रण करने के लिये यान्त्रिक एवं रासायनिक विधियों का प्रयोग करना चाहिये ।
- यान्त्रिक विधि से खरपतवारों को नष्ट करना एक आसान व सस्ती विधि है ।
- रासायनिक विधि में खर्च अधिक करना पड़ता है ।
- खरपतवारनाशियों के धान की फसल में प्रयोग करने के पश्चात् इनका प्रभाव खेत में शीघ्र दिखाई पड़ने लगता है ।
- धान की फसल (dhaan ki fasal) में प्रयोग होने वाले खरपतवारनाशियों में लासो, सातन व स्टाम F - 34 आदि रसायनों का प्रयोग सफल सिद्ध हो चुका है ।
- रसायनों के प्रयोग के अभाव में दो निराई की जा सकती हैं ।
धान की फसल का स्वास्थ्य
धान की फसल की अच्छी वृद्धि व उत्तम स्वास्थ्य के लिये कीटों व बीमारियों पर नियन्त्रण करना आवश्यक है ।
धान की फसल का स्वास्थ्य |
( a ) धान की फसल में लगने वाले कीट एवं उनका नियन्त्रण
तना छेदक ( Stem borer ) –
यह कीट धान की फसल की हानि करते रहते हैं ।
इन पर नियन्त्रण के लिये - BHC, मैलाथियान व इण्डोसल्फल आदि में से किसी एक का प्रयोग किया जा सकता है ।
गन्धी कीट ( Gundhi bug ) —
धान पर लगने वाले गन्धी कीट पर नियन्त्रण के लिये BHC dust या इण्डोसल्फान का प्रयोग करना चाहिये ।
( iii ) गाल मक्खी ( Gall midge ) -
इस कीट के लार्वा धान के पौधों को खा जाते । उपचार के हैं जिससे पौधा सूख जाता है ।
गाल मक्खी पर नियन्त्रण हेतु - थाइमेट- G की 15-20 किग्रा० मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से रोपाई के 10-15 दिन बाद प्रयोग करनी चाहिये ।
( b ) धान की फसल में लगने वाली बीमारियां एवं उनका नियन्त्रण ( Control on diseases )
( i ) ब्लास्ट ( Blast ) –
पौधों की पत्तियों पर छोटे - छोटे नीले हरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं ।
इस रोग के नियन्त्रण हेतु - बीज को उपचारित करना आवश्यक है । बीज लिये एग्रोसन GN या सेरेसन आदि कवकनाशियों का प्रयोग किया जा सकता है । इसके साथ - साथ रोगरोधी जातियों जैसे जया या IR - 20 की बुवाई करनी चाहिये ।
( ii ) पर्ण अंगमारी ( Leaf blight ) -
पौधों की पत्तियों पर पीले रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं । इसमें पौधे पूर्ण रूप से झुलस जाते हैं । इसीलिये इस रोग को झुलसा रोग भी कहा जाता है ।
इस रोग पर नियन्त्रण के लिये - ब्लाइटॉक्स का प्रयोग करना चाहिये तथा ऊर्शकों की सन्तुलित मात्रा व रोगरोधी जातियों की बुवाई उचित रहती है ।
( iii ) खैरा रोग ( Khaira disease ) -
धान के पौधे छोटे - छोटे रह जाते हैं । पौधे के नीचे की पत्तियों पर छोटे - छोटे कत्थई रंग के धब्बे बन जाते हैं । पौधे की सभी पत्तियाँ सूखने लगती है । पत्तियों का हरा रंग लुप्त हो जाता है । रोगी पौधों की जड़ों की वृद्धि रूक जाती है ।
इस बीमारी पर नियन्त्रण के लिये - 5kg. जिंक सल्फेट व 2.5 किग्रा० बुझा चूना 1000 लीटर पानी के साथ घोल बनाकर एक हैक्टेयर खेत में छिड़काव करना चाहिये । यदि बीमारी अधिक फैली हुई है तो इस छिड़काव को रोग की अधिकता को देखते हुये दो या तीन बार भी प्रयोग किया जा सकता है ।
धान की फसल कितने दिन में तैयार हो जाती है?
ऊंची भूमियों में बोई जाने वाली धान की फसल अपना जीवनकाल 70 से 100 दिन में पूरा करती है
धान की कटाई किस महीने में की जाती है?
जब धान के पौधे की बाल में दाने कठोर हो जायें तो फसल की कटाई का यह उपयुक्त समय होता है । बिना किसी देरी किये फसल की कटाई तुरन्त करनी चाहिये । कटाई में देरी करने से पौधे की बालों से दानों का बिखरना प्रारम्भ हो जाता है जिससे हानि होने की सम्भावना रहती है । इस समय धान के दाने में लगभग 15 से 20 प्रतिशत नमी होनी चाहिये ।
धान की फसल की गहराई कब एवं कैसे करते है?
फसल की कटाई के पश्चात् धान के पौधों को खेत में एक ही स्थान पर एकत्र कर लेते हैं । डण्डों की सहायता से इकट्ठा किये गये पौधों के बण्डलों को पीट - पीट कर पौधों से अनाज को अलग कर लिया जाता है । गहराई के लिये शक्ति चालित यन्त्र का प्रयोग भी किया जा सकता है ।
धान की ओसाई
गहराई के पश्चात् धान की फसल (dhaan ki fasal) को साफ करना आवश्यक है । इस कार्य के लिये ओसाई यन्त्र - विनोवर (Winnower) का प्रयोग करने से प्राकृतिक हवा की निर्भरता समाप्त हो जाती है और कम समय में बड़े से बड़े ढेर की सफाई सम्भव ।
धान की उपज कितनी होती है?
धान की फसल की ऊँची भूमियों में उगाने से अतिरिक्त खर्च की आवश्यकता होती है । अतः सिंचाई जल, उर्वरकों व अन्य क्रियाओं पर होने वाले खर्च के कारण 20-25 कुन्तल उपज प्रति हैक्टेयर प्राप्त हो जाती है ।
धान का रेट कितना है?
जहाँ साधारण चावल का मूल्य बाजार में 1000 रु० कुन्तल है वहीं बासमती चावल का कीमत 2500 रु०/कुन्तल के लगभग रहता है ।
गहरे जल में धान की अधिक पैदावार लेने के उपाय
भारत में गहरे जल में धान की खेती (dhaan ki kheti) लगभग 6-7 मिलियन हैक्टेयर भूमि में की जाती है । गहरे जल में धान की फसल (dhaan ki fasal) के लिये अपनाई जाने वाली सस्य वैज्ञानिक विधियाँ धान उगाने की अन्य विधियों से भिन्नता रखती हैं ।
गहरे जल में धान की फसल से अधिक पैदावार के लिए निम्नलिखित उपाय है -
- गहरे जल की स्थिति में या बाढ़ की स्थिति से बचाव हेतु धान की बुवाई या रोपाई जून के अन्तिम सप्ताह में या जौलाई के प्रथम सप्ताह में की जानी चाहिये ।
- सामान्य बीज दर की तुलना में 90 किग्रा. बीज एक हैक्टेयर खेत में प्रयोग करने से वांछित पौधों की संख्या उपलब्ध होने के कारण अधिक उपज प्राप्त होती है ।
- अधिक पैदावार के लिये नाइट्रोजन युक्त उर्वरक का प्रयोग दो किस्तों में करना चाहिये । पोटाश की सम्पूर्ण मात्रा व आधी नाइट्रोजन बुवाई के समय प्रयोग करना उचित है । शेष नाइट्रोजन बुपाई के 50 दिन बाद प्रयोग करने से अधिक उपज प्राप्त होती है ।
- गहरे पानी वाले क्षेत्रों में जलकुम्भी एक प्रमुख खरपतवार होता है । इस खरपतवार को नियन्त्रित करने के लिये धान की रोपाई के 50 दिन बाद एक किलोग्राम 2, 4 - D का प्रयोग किया जाना चाहिये ।
- गहरे जल में उगने वाले धान की उपज 10-15 क्विटल / है. तक होती है ।
धान की सीधी बुवाई के लाभ एवं धान की सीधी बुवाई में खरपतवार नियंत्रण
वर्तमान समय में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल व उत्तर पश्चिम भारत में धान उत्पादन की एक अनूठी एवं लाभकारी तकनीक धान की सीधी बुवाई (dhan ki sidhi buwai) विकसित की गई है । इस तकनीक को अपनाने से धान की फसल के उत्पादन पर होने वाला खर्च कम हो जाता है ।
सस्य वैज्ञानिकों का मत है, कि रोपण विधि से धान उगाने की तुलना में खेत की इसकी सीधी बुवाई (sidhi buwai) करने पर कई प्रकार से लाभ होता है ।
धान की सीधी बुवाई के लाभ एवं धान की सीधी बुवाई में खरपतवार
धान की सीधी बुवाई के लाभ एवं धान की सीधी बुवाई में खरपतवार नियंत्रण |
धान की सीधी बुवाई कब एवं कैसे की जाती है?
रोपण विधि से धान उगाने में सर्वप्रथम धान की पौध नर्सरी में तैयार की जाती है और खेत में पानी भरकर जुताई कर खेत को लेहयुक्त (Puddled) बनाने में अधिक परिश्रम की आवश्यकता होती है ।
ऐसा करने से भूमि की जल धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है, परन्तु आजकल मजदूरों के उपलब्ध न होने के कारण उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता इस प्रणाली में धान की खेत में सीधी बुवाई जून के प्रथम सप्ताह में नर्सरी की तैयारी के समय ही की जाती है ।
यदि बुवाई के समय भूमि में नमी की कमी है तो पहले एक हल्की - सी सिंचाई करनी चाहिये । बीजों की बुवाई पंक्तियों में 20 सेमी. की दूरी पर की जाती है । बुवाई की गहराई 3 सेमी० रखी जानी चाहिये ।
सीधी बुवाई (sidhi buwai) वाली फसल में 120-150 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर व फास्फोरस तथा पोटाश की मात्रा भूमि परीक्षण के आधार पर दी जानी चाहिये ।
धान की सीधी बुवाई के क्या लाभ है?
रोपण विधि की तुलना में धान की सीधी खेत में बुवाई करने से होने वाले निम्न प्रकार है -
- धान की सीधी बुवाई (dhan ki sidhi buwai) करने से उपज में वृद्धि होती है, परन्तु खरपतवारों पर नियन्त्रण के लिये पैण्डीमैथालीन 1.25 लीटर/हैक्टेयर की दर से 700 से 800 लीटर पानी में घोलकर प्रयोग करना बहुत ही आवश्यक है ।
- रोपण विधि की तुलना में धान की खेती कम खर्च के साथ की जा सकती है ।
- इस विधि से धान उगाने से मजदूरों पर निर्भरता कम हो जाती है । रोपण विधि की तुलना में एक तिहाई श्रम की बचत होती है ।
- रोपण विधि में धान की कुल जलमाँग का लगभग 20% जल रोपाई के समय खर्च हो जाता है जबकि इस विधि में इस जल की बचत होती है ।
- इस विधि में कम समय में अधिक क्षेत्रफल की बुवाई की जा सकती है ।
अतः उचित समय पर या कम समय में सीधी बुवाई (sidhi buwai) का कार्य किया जा सकता है ।
धान की सीधी बुवाई में खरपतवार नियंत्रण
इस नई तकनीक को अपनाने में एक प्रमुख समस्या यह है कि खेत में खरपतवारों की संक्रमणता (weed infestation) बढ़ जाती है ।
खरपतवारों के संक्रमण पर नियन्त्रण के लिये -
पेन्डीमैथालिन (Pendimethalin) खरपतवारनाशी का प्रयोग 1.25 लीटर/हैक्टेयर की दर से करने पर खरपतवारों से छुटकारा मिल जाता है । इस रसायन का प्रयोग बुवाई के तुरन्त बाद करना चाहिये ।