- चने का वानस्पतिक नाम (Botanical Name) - साइसर एराइटिनम (Cicer arietinum)
- चने का कुल (Family) - लेग्यूमिनेसी (Leguminoceae)
- चने में गुणसूत्र संख्या - 2n = 14,16
उत्तरी भारत में चने की खेती (chane ki kheti) रबी के मौसम में उगाई जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण एवं प्राचीन दलहनी फसल है ।
दैनिक भोजन में चने का उपयोग की संस्तुति हमारे देश में प्राचीनकाल से ही की जाती रही है । यहाँ की अधिकांश जनसंख्या भोजन में चने और उससे बने विभिन्न प्रकार के व्यंजनों का उपभोग करती है ।
एशियाई देशों में शाकाहारी मनुष्यों के लिये भोजन में दालें जैसे चना, मसूर व मटर आदि प्रोटीन का मुख्य स्रोत है । एशियाई देशों में पिछले वर्षों में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है ।
भोजन में दालों का उपभोग करने वाले लोगों की संख्या में भी भारी वृद्धि हुई है, परन्तु दलहनी फसलों (Pulses Crops) का उत्पादन कम होने के कारण इसकी माँग दिनों दिन बढ़ती जा रही है और इसी कारण से इसका मूल्य भी बढ़ता जा रहा है ।
दलहनी फसलों की अपेक्षा के अनुरूप उत्पादन न होने के बहुत से कारण हैं । इनमें सबसे प्रमुख कारण अच्छे सस्य - प्रबन्ध का अभाव है ।
चने का आर्थिक महत्त्व
चना एक पोषक तत्वों वाली दलहनी फसल है । चने के दानों में प्रोटीन 20-22%, वसा 5%, कार्बोहाइड्रेट्स 62%, खनिज लवण 3%, रेशे 4% तथा शेष नमी पाई जाती है ।
चने के पौधे के विभिन्न भागों का उपयोग निम्न प्रकार किया जाता है -
- उत्तरी भारत में चने की दाल का भोजन में एक प्रमुख स्थान है ।
- चने का आटा गेहूँ के आटे में मिलाकर मिस्सी रोटियाँ बनाई जाती हैं जो सम्पूर्ण भारत में विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं ।
- चने की हरी पत्तियों का साग उत्तरी भारत में अत्यन्त लोकप्रिय है ।
- चने के हरे व सूखे दानों को भूनकर खाया जाता है । चने के दानों को अंकुरित करके भी खाया जाता है ।
- चने की दाल से बने बेसन से विभिन्न प्रकार की स्वादिष् , नमकीन एवं मिठाइयाँ बनाई जाती हैं ।
- चने के पौधे का हरा भाग व चने का दाना तथा भूसा दुधारू पशुओं के लिये एक अच्छे राशन के रूप में प्रयोग में लाया जाता है । इसके भूसे को पशु बड़े चाव से खाते हैं ।
- चने में 20-22%, प्रोटीन तथा कैल्शियम व आयरन भी पाया जाता है । इसे भोजन में प्रयोग करने से रक्त शुद्धि होती है तथा शरीर मजबूत बनता है ।
- चना एक फलीदार फसल (legume crop) होने के कारण वायुण्डलीय नाइट्रोजन को अपनी जड़ों की गाँठों में एकत्र करता है जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है ।
चने का उत्पत्ति स्थान एवं इतिहास
चने की खेती (chane ki kheti) भारतवर्ष तथा इसके आस - पास के क्षेत्रों में बहुत प्राचीनकाल से ही होती रही है ।
इस फसल का वर्णन यहाँ के पौराणिक ग्रन्थों में भी पाया जाता है ।
वेवीलोव के मतानुसार,
चने का उत्पत्ति स्थल दक्षिणी एशिया है । आज भी एशिया महाद्वीप में विश्व के कुल चने के उत्पादन का लगभग 80% भाग का उत्पादन होता है । भारत में प्राचीनकाल से उगाये जाने वाले चने का रंग भूरा है ।
सफेद रंग के चने को काबुली चना (Kabuli chana) कहा जाता है जिसका उत्पत्ति स्थल सम्भवत : अफगानिस्तान देश की राजधानी काबुल और उसके आस - पास का क्षेत्र माना जाता है । इन्हीं दोनों उत्पत्ति स्थलों से लाल व सफेद चने की प्रजातियों का खेती हेतु प्रचार एवं प्रसार विश्व के अन्य देशों को हुआ ।
चने का भौगोलिक वितरण
चना भारत की एक महत्वपूर्ण दलहनी फसल है ।
सम्पूर्ण विश्व में चने की खेती (chane ki kheti) लगभग 23 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर की जाती है तथा इसका विश्व में कुल उत्पादन लगभग 15 मिलियन टन है । विश्व में इसका उत्पादन मुख्यतः एशियाई देशों में होता है ।
विश्व के चना उत्पादक प्रमुख देशों में एशियाई देश भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, बर्मा तथा मिश्र व आस्ट्रेलिया आदि प्रमुख हैं । वर्तमान समय में विश्व में चने की औसत उत्पादकता लगभग 700 किग्रा./ हैक्टेयर है ।
भारत में चने की खेती (chane ki kheti) का क्षेत्रफल विश्व के कुल चने के क्षेत्रफल का लगभग एक तिहाई है । यहाँ लगभग 7 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर चने की खेती की जाती है और इसका उत्पादन लगभग 6 मिलियन टन है ।
यहाँ पर चने का उत्पादन विश्व में चने के कुल उत्पादन का लगभग 40% है । भारत में चना उत्पादक प्रमुख राज्यों में उत्तर - प्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश, पंजाब, राजस्थान, बिहार व गुजरात आदि हैं । सम्पूर्ण भारत में चने की औसत उत्पादकता लगभग 750 किग्रा./ हैक्टेयर है ।
चने का वानस्पतिक विवरण
चने का वानस्पतिक नाम Cicer arietinum है । यह लैग्युमिनोसी (Leguminoceae) कुल से सम्बन्धित है ।
इसका पौधा एकवर्षीय एवं शाकीय (annual and herbaceous) होता है । इसके पौधे की ऊँचाई 50 से 70 सेमी. तक होती है । इसका तना ठोस, शाखायुक्त, शाकीय, झाड़ी के समान व कोणीय रूप में बढ़ने वाला होता है ।
इसके पौधे की जड़े मूसला होती हैं उस पर पार्श्व जड़ें (lateral roots) पाई जाती हैं । इसकी जड़ों पर गाँठे बन जाती हैं जिससे वायुमण्डल की नाइट्रोजन भूमि में स्थिर हो जाती है । इसकी पत्तियों के किनारे दाँतेदार होते हैं तथा पत्तियाँ आकार में छोटी - छोटी व घनी होती हैं । इनकी चुटाई (knipping) कर देने पर इनकी सघनता एवं संख्या और बढ़ जाती ।
इसका पौधा हरा व इसके फूल गुलाबी या सफेद रंग के होते हैं तथ यह एक आयताकार फली का रूप ले लेता है जिसमें चने के 2-3 दाने पाये जाते हैं । इसके दाने चने की प्रजाति के आधार पर भूरे या सफेद रंग के तथा आकार छोटे या बड़े हो सकते हैं ।
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चने की खेती के लिए उचित जलवायु
उत्तरी भारत में चने की खेती (chane ki kheti) रबी के मौसम में की जाती है ।
चना मूल रूप से एक ठण्डे मौसम की फसल है । विश्व के अन्य क्षेत्रों में यह ठण्डे एवं इसके अनुकूल मौसम में उगाई जा सकती है । दक्षिणी - पूर्वी एशियाई क्षेत्र की यह एक प्रमुख दलहनी फसल है । चने के अंकुरण के लिये 20-28°C तापमान की आवश्यकता होती है ।
अंकुरण के समय सर्दी अधिक हो जाने पर वातावरण का तापमान घट जाता है इससे अंकुरण देरी से होता है और अंकुरण प्रतिशत भी घट जाता है । बुवाई के तुरन्त बाद वर्षा होने पर अंकुरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । फसल की उचित वृद्धि एवं बढ़वार के लिये 15-20°C तापमान तथा प्रकाशमान दिनों का होना आवश्यक होता है ।
ऐसा न होने पर पौधों की वानस्पतिक वृद्धि कम होती है और उपज घट जाती है । फसल के वृद्धिकाल में पाला (frost), कोहरा (mist) एवं ओलावृष्टि (hail - storm) उसकी वृद्धि एवं विकास को अत्यधिक हानि पहुँचाते हैं और क्राप फेलयोर (crop failure) की सम्भावना बढ़ जाती है ।
चने की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी
चने की खेती (chane ki kheti) के लिये हल्की दोमट (light loamy) भूमि सर्वोत्तम रहती है । चने की खेती विभिन्न प्रकार की भूमियों में की जाती है ।
अत्यधिक उपज एवं अधिक जल धारण क्षमता वाली भूमियों में इसके पौधों की वानस्पतिक वृद्धि एवं बढ़वार अधिक होती है और फलियाँ कम लगती हैं जिससे उपज घट जाती है । इसकी खेती के लिये उपयुक्त मृदा का pH मान 6-5 से 7.5 तक होता है । इससे अधिक उसरीली भूमियाँ चने की खेती (chane ki kheti) के लिये उपयुक्त नहीं होती है । भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था का होना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि अधिक जल व नमी की अवस्था इसकी फसल के लिये हानिकारक होती है ।
चने की उन्नत खेती कैसे की जाती है, पूरी जानकारी?
चने की खेती से अधिक उपज प्राप्त करने के लिये उसमें निम्नलिखित उन्नत सस्य क्रियाओं को अपनाना चाहिए -
सस्य प्रबन्ध क्रियाओं में कम अवधि की व अधिक उपज देने वाली जातियों की कमी, उच्च गुणवत्तायुक्त बीज की अनुपलब्धता, बुवाई की उपयुक्त विधि न अपनाना, बीज कम मात्रा में प्रयोग, असमय बुवाई, अपर्याप्त कर्षण क्रियायें, सिंचाई जल का अकुशल प्रबन्ध, अपर्याप्त फास्फोरस प्रयोग, कल्चर का प्रयोग न करना व पादप सुरक्षा में कमी आदि सम्मिलित हैं ।
अनुसन्धानकार्य उच्चस्तरीय न होना, अपर्याप्त कृषि प्रसार संसाधनों का होना व प्रशिक्षण कार्यक्रम की कमी, सामाजिक व आर्थिक कारणों के अतिरिक्त मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण भी इन फसलों की उत्पादकता कम रहती है ।
चने की खेती कैसे करें, पूरी जानकारी | chane ki kheti | Farming Study |
चने की खेती के लिए भूमि का चुनाव कैसे करें?
चने की खेती के लिये दोमट एवं मटियार दोमट भूमि उपयुक्त रहती है । भूमि का pH 6-5 से 7-5 के बीच होना चाहिये । क्षारीय एवं जलमग्न भूमियाँ इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं होती है । भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था होना आवश्यक है । शुष्क व हल्की भूमियाँ तथा अधिक उपजाऊ भूमियाँ इसकी खेती के लिये उपयुक्त नहीं रहती हैं ।
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चने की खेती के लिए खेत की तैयारी कैसे करें?
खरीफ की फसल की कटाई के पश्चात् एक गहरी जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से व 2-3 जुताइयाँ देशी हल से तथा 2-3 बार हैरो चलाकर खेत बुवाई के लिये तैयार किया जाता है ।
ऐसा करने से खेत की मिट्टी भुरभुरी हो जाती है । भूमि में नमी संरक्षण के लिये प्रत्येक जुताई के पश्चात् पाटा लगाना उचित रहता है । छोटे ढेलदार मृदा में वायु का संचार भली - भाँति होने के कारण यह चने की खेती के लिये लाभकारी होती है ।
चने की किस्में
चने की अधिक उपज प्राप्त करने के लिये विभिन्न उन्नतिशील जातियाँ विकसित की जा चुकी हैं ।
चने की किस्मों का विवरण निम्न प्रकार है -
इनमें से बुवाई का समय एवं क्षेत्र की जलवायु एवं मृदा को ध्यान में रखते हुये उपयुक्त किस्म का चुनाव बुवाई हेतु किया जा सकता है ।
1. देशी चना (desi chana)
समय पर बोये जाने वाली जातियाँ -
- पूसा -256
- सूर्या (WCG - 2)
- राधे
- अवरोधी
- उकठा अवरोधी (D - 1168)
- सदभावना (WCG - 1)
- करनाल चना -1 तथा टाइप -3 व टाइप -1 आदि ।
विलम्ब या देरी से बोये जाने वाली जातियाँ -
- पन्त G - 180
- सदभावना (WCG - 1)
- BG - 372 तथा उदय आदि ।
2. काबुली चना (Kabuli chana)
- पूसा चमत्कार
- L - 5501
- पूसा -1003
- सदाबहार
- पूसा -267
- प्रगति तथा K - 4 व K - 5 आदि ।
चने की बुवाई का उपयुक्त समय
चने की बोनी कब करें - चने की बुवाई अक्टूबर के प्रथम या द्वितीय सप्ताह में कर देनी चाहिये । इससे पूर्व बुवाई करने पर पौधों की वृद्धि एवं बढ़वार अधिक होती है और पौधे के रोगग्रस्त होने की सम्भावना बढ़ जाती है । इससे पौधे पर फलियाँ कम लगती है और उपज घट जाती है । वर्षाआधारित क्षेत्रों में चने की बुवाई के लिये अक्टूबर माह का द्वितीय सप्ताह उपयुक्त होता है ।
चने की खेती कोन से महीने में की जाती है?
उत्तरी भारत में अक्टूबर के तीसरे व अन्तिम सप्ताह तक भी चने की बुवाई की जा सकती है । सिंचाई की सुविधायें उपलब्ध होने पर नवम्बर के प्रथम सप्ताह में भी इस फसल की बुवाई की जा सकती है ।
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चने की बीज दर कितनी होती है?
चने के बीज के आकार व बोने की दूरी के अनुसार सामान्यत: 80-100 किग्रा. बीज एक हैक्टेयर क्षेत्रफल के लिये पर्याप्त होता है । बीज का आकार बड़ा होने पर बीज दर बढ़ जाती है अर्थात् बीज अधिक लगता है ।
चने का बीज का उपचार कैसे करें?
घरेलू बीजों का उपयोग करने पर बीजजनित रोग अधिक पनपते हैं । अत: बीज को फफूंदी आदि रोगों से बचाने के लिये किसी प्रभावशली फफूंदीनाशक जैसे कैप्टॉफ 50W की 5 ग्राम मात्रा प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये ।
चने की खेती में राइजोबियम कल्चर का प्रयोग
चने के बीज को बुवाई से पूर्व राइजोबियम कल्चर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये । इसके लिये 0-5 लीटर जल में 50 ग्राम गुड़ का घोल बनाकर इसे 10 मिनट तक गर्म करके घोल को ठण्डा करना चाहिये । इसमें 250 ग्राम राइजोबियम कल्चर का 25 किग्रा. बीज पर डालकर मिला लेते हैं और बीज को छाया में सुखा लेते हैं ।
यदि खेत में चने की फसल (chane ki fasal) प्रथम बार अथवा 5-6 वर्षों के बाद पुनः बोई जा रही हो तो चने के बीज को उपयुक्त राइजोबियम से उपचारित करना चाहिये । राइजोबियम कल्चर का उपचार बीज के फफूंदीनाशक दवा से उपचार के पश्चात् ही करना चाहिये । इस बीज को उर्वरकों के साथ मिलाकर बुवाई करने से अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है अतः उर्वरकों का प्रयोग अलग से करना चाहिये ।
चने की बुवाई की विधि कैसे करें?
चने की अच्छी उपज के लिये इसकी बुवाई पंक्तियों में देशी हल या सीडड्रिल (seeddrill) के द्वारा करनी चाहिये ।
चने में अन्तरण कितना रखते है?
सिंचित दशाओं में बुवाई के लिये पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 40 सेमी० रखनी चाहिये । असिंचित स्थिति में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25-30 सेमी. उपयुक्त रहती है, जबकि देरी से बुवाई करने पर पंक्ति से पंक्ति की दूरी 20-25 सेमी० पर्याप्त रहती है । पौधे से पौधे की दूरी सभी परिस्थितियों में लगभग 10 सेमी रखनी चाहिये ।
चने की बुवाई की गहराई कितनी होनी चाहिए?
चने के बीज की बुवाई 8-10 सेमी० की गहराई पर करना उपयुक्त रहता है । इससे कम गहराई पर बीज की बुवाई करने पर अंकुरण के पश्चात् फसल पीली पड़ जाती है और उसमें उकठा रोग की सम्भावना बढ़ जाती है । बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी होनी आवश्यक है ।
चने की फसल में खाद एवं उर्वरक का उपयोग
चना एक फलीदार फसल है । इसके कारण इसकी जड़ों में उपस्थित जीवाणुओं द्वारा वायुमण्डल की नाइट्रोजन संचित कर ली जाती है, परन्तु प्रारम्भ के लगभग एक माह में जब तक जीवाणु पूर्ण रूप से क्रियाशील नहीं होते पौधों को भूमि से नाइट्रोजन प्राप्त करनी पड़ती है ।
इसके लिये लगभग 20-25 किग्रा. नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करनी चाहिये । फास्फोरस व पोटाश के लिये मृदा परीक्षण करना आवश्यक होता है । यदि भूमि में इन तत्वों की कमी होने पर लगभग 80 किग्रा. फास्फोरस व 50 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करनी चाहिये ।
मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों की मात्रा घटाई बढ़ाई जा सकती है इन तत्वों (N. P. K) की पूर्ति के लिये 100 किग्रा. डाई अमोनियम फास्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के समय बीज के नीचे प्रयोग करना लाभकारी रहता है । उर्वरकों की पूर्ण मात्रा बुवाई के समय कूण्डों में बीज के लगभग 5-6 सेमी. नीचे डालनी चाहिये ।
मृदा जाँच के उपरान्त जिन भूमियों में जिंक की कमी पाई जाती है उनमें रैलीजिक की 20 किग्रा./मात्रा हैक्टेयर की दर से प्रयोग करनी चाहिये । इसी प्रकार जिन भूमियों में गन्धक की कमी पाई जाती है उनमें जिप्सम 120 किग्रा./ हैक्टेयर की दर से बुवाई के एक माह पूर्व खेत में मिला देना चाहिये ।
चने की फसल में जल प्रबन्ध
चने की पौधे की जड़ मूसला होती है । ये जमीन में अधिक गहराई से उपलब्ध जल का उपयोग करने में सक्षम होती हैं ।
चने की फसल में सिंचाई
सामान्य परिस्थितियों में चने की फसल के लिये सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है । शरद्काल सूख जाती है और पोधा मर जाता है ।
इसके नियन्त्रण के लिये - बीज की बुवाई 8-10 सेमी० में महावट की वर्षा न होने पर एक सिंचाई फूल बनने से पूर्व बुवाई के लगभग 40 दिन पश्चात् करनी चाहिये तथा दूसरी सिंचाई फलियों में दाना बनते समय बुवाई के लगभग 90 दिन के पश्चात् करनी चाहिये ।
फूल आते समय सिंचाई कदापि नहीं करनी चाहिये । फूल आने के समय सिंचाई कर देने पर या इस समय वर्षा हो जाने पर फूल झड़ जाते हैं और उपज घट जाती है आवश्यकता से अधिक सिंचाई इस फसल के लिये हानिकारक होती है ।
अत: दोनों सिंचाइयाँ यदि आवश्यक हो तो केवल उपरोक्त दिशाओं में ही करनी चाहिये तथा हल्की सिंचाई करनी चाहिये । अधिक जल उपलब्ध होने पर पौधों की वानस्पतिक वृद्धि अधिक हो जाती है जिससे फलियाँ कम बनती है और उपज घट जाती है ।
चने की फसल में लगने वाले खरपतवार एवं उनका नियन्त्रण करें?
चने की फसल में बुवाई के 30-40 दिन पश्चात् खुरपी की सहायता से खेत में पहली निराई करनी चाहिये तथा दूसरी निराई पहली सिंचाई के बाद उस समय करनी चाहिये जब खेत अच्छी प्रकार से निराई के योग्य हो जाता है ।
इससे खेत में पर्याप्त वायुसंचार बढ़ जाता है जो चने की फसल के लिये अत्यन्त आवश्यक है । इस फसल में उगे खरपतवारों को रासायनिक विधि से नियन्त्रित करने के लिये 3 लीटर पैण्डीमैथालीन 30EC को 1000 लीटर जल में घोलकर (बुवाई के तुरन्त बाद) फसल के अंकुरण से पूर्व प्रयोग करना चाहिये ।
चने की चुटाई किसेे कहते है एवं यह कैसे की जाती है?
चने की फसल के पौधों की ऊँचाई लगभग 18-20 सेमी ० के बराबर हो जाने पर उन्हें शीर्ष से तोड़ देना चाहिये, ही इसे चने की चुटाई (Knipping of Gram) कहा जाता है ।
इससे चने की वानस्पतिक वृद्धि अधिक होती है तथा उसके पौधे पर शाखायें और फलियाँ ब दाने अधिक बनते हैं तथा उपज अच्छी होती है ।
चने की फसल सुरक्षा कैसे करें?
फसल के पौधों का स्वास्थ्य अच्छा होने पर इसकी कीटों एवं रोगों से संघर्ष करने की क्षमता बढ़ जाती है । चने की फसल के बहुत से कीट व बीमारियाँ हानि पहुँचाते रहते है ।
इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है -
1. चने की फसल में लगने वाले कीट एवं उनका नियन्त्रण -
चने की फसल को हानि पहुँचाने वाले कीटों में कटुआ कीट, फलीबेधक कीट, कैटरपिलर्स एवं सेमीलूपर कीट आदि प्रमुख हैं ।
( i ) कटुआ कीट ( Katua Insect ) -
यह एक भूरे रंग की सूंडी होती है जो पौधों पर रात के समय आक्रमण कर उन्हें खाती रहती है ।
इस पर नियन्त्रण के लिये - फ्यूराडान 3G को 20 किग्रा./ हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिये ।
( ii ) फलीबेधक कीट ( Pod - Borer Insect ) -
यह भी एक प्रकार की सूंडी है जो पौधों पर लगने वाली फलियों में छेद करके अन्दर के दानों को खा जाती है ।
इस पर नियन्त्रण के लिये - असाटाफ -75 5P की 1.5 ग्राम मात्रा/लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिये ।
2. चने की फसल में लगने वाली बीमारियाँ एवं उनका नियन्त्रण -
चने की फसल में हानि पहुँचाने वाले प्रमुख रोगों में चने का उकठा रोग, जड़ सड़न रोग व अंगमारी रोग तथा किट्ट रोग या गेरूई रोग
( i ) उकठा रोग ( Wilt Disease ) -
चने की बुवाई कम गहराई पर करने से फसल पर गहराई पर करनी चाहिये तथा रोगरोधी किस्मों का चयन करना चाहिये तथा बीज को कैप्टॉफ 50W की 5 ग्राम/किग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये ।
( ii ) जड़ सड़न रोग ( Root - rot disease ) -
इस बीमारी के प्रभाव से पौधों की जड़ों पर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और यह गल जाती है ।
इसके नियन्त्रण के लिये - उपचार उकठा रोग के उपचार के समान है ।
( iii ) किट्ट रोग ( Rust disease ) -
इसके प्रभाव से पौधों की पत्तियों पर छोटे, गोल व भूरे धब्बे पड़ जाते हैं और ये सूख जाती है ।
उपचार के लिये - कैन्टाफ 5E की 1-2 मिली०/लीटर जल में घोलकर छिड़काव करना चाहिये ।
चने की फसल कितने दिन की होती है?
चने की फसल बुवाई के 120-140 दिन पश्चात् पूर्ण रूप से पककर तैयार हो जाती है ।
चने की कटाई व मड़ाई का समय
पूर्ण पकी हुई फसल की कटाई प्रात: काल में करके उसे लगभग 7 दिन में धूप में सुखाना चाहिये । इसके बाद दाना निकाल लेने की प्रक्रिया पूर्ण करते हैं ।
चने की फसल से प्राप्त उपज कितनी होती है?
- चने की देसी जातियों से लगभग 30 क्विटल/हैक्टेयर उपज प्राप्त होती है ।
- काबुली जातियों से लगभग 20 क्विटल/हैक्टेयर तक उपज प्राप्त हो जाती है और इतना ही भूसा भी प्राप्त होता है ।